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________________ पुरा सद्गुरु ना मिला, रहा अधुरा शिखं; स्वांग जतिका पेहेरके, घर घर मांगे भिख. सद्गुरु ऐसा किजीये, तून दिखावे सार; पार उतारे पलकमें, दर्पन दे दातार. (३) ठया गरीबी बंदगी, समता शील स्वभाव; एते लक्षन साधके, कहे कबीर सद्भाव, (५) हे साधुनामधारी ! रहने कोइ 'पुरो' सद्गुरू मळ्यो नथी जणातो; तेथी तुं पण 'अधुरो शिख' एटले 'अपूर्ण शिष्य' बन्यो · अने जनिनो-साधुनो स्वांग पहेरीने र घेर टुकडा मागी खावा मांड्या : - (६) सद्गुरु एवा मेळववा जोइए के जे जलदी जलदी 'सार पदार्थ-आत्मपीछान मेधी आपे अने भवनळ पार उतारी दे. कारणके सद्गुरु तो बीजु कांइ देता नथी, मात्र दर्पण देछे. एटले के हृदयनी निर्मळता करी आपे छे. जेम कोइ 'बाळकना हाथमां दर्पण आपवा छतां एमां पोतानुं म्हों जोवानो परिश्रम तो बाळके पोते ज लेवो पडशे; तेमं सद्गुरु कांइ आत्मानुं दर्शन करावता नथी, पण हृदयने अरीसा जे, बनावी आपे छे, के जेथी करीने शिष्य ते अरीसामां पोतानुं स्वरुप जोइ शके. (३) अत्यार सुधी साधुनामधारीनां लक्षण बतावी भोळा • लोकोने चेतव्या; हवे साचा साधुनां लक्षण बतावी एमना शरणे जवानी सलाह आपेछे. कबीरजी 'सद्भाव' कहेछे अर्थात् जे छे तेवु-- यथारुप सत्य जणावे छे के, दया, नम्रता, भक्ति, सम--ता
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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