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________________ २० जाका गुरु है लालची, दया नहिं शिष्य मांहि; ओ दोनोको भेजिये, उज्जड कुवा मांहि ! गुरु गुरु सब कहा करो, गुरुहि ' घर ' में भाव, सो गुरु का किजीये, जो नहि बतावे दाव ? बंधे से बंधा मिला, छुटे कौन उपाय ? संगत कीजे निर्बंधकी, पलमें दिये छुटाय. ३ दुनीआना साधुओ अने भक्तोनो म्होटो भाग आवो ज होय छे. पथ्थरनी होडीमां बेटेला शिष्यो हवे एमां शुं आश्चर्य ? ( २ ) वाहरे कबीरजी वाह ! हमारा जेवा सत्यकथन निडरपणे करनारा पुरुषो थोडा ज थया हशे. जेना गुरु पैसा के मानना लालची होय रहेना- शिष्यने दया तो होड़ शके ज नहि; कारण के पैसा के मान रळवा माटे अनेक दगाफटका अने काट-कूट करवी पडे, एमां शिष्य गुरुनी भक्ति खातर थोडी महेनते मोक्ष सुंदरीने वरी बेसवा खातर - हथीआर तुल्य बने ज. माटे एवा गुरु अने एवा. 'वेलाने तो उज्जड कुवामा पधरावी दो, के जेथी कोइ कहाडनार पण न मंळे ! : 6 (३) हे लोको ! हमे बधा भला माणस छो, हमे गुरुगुरु' एवा पोकार कर्या करोहो; पण हमारा गुरुना भाव एटले. लक्ष तो 'घर' एटले संसारमां संसारी जेवा काममा छे. जे गुरु संसार भावने अळगो करी परमतत्वनो प्राप्तिनो ' दाव ' बतावे नहि रहेने 'गुरु' कयो मूर्ख कहेशे ? (४) बांधेला बांधलाने केम छोडवी शके ? कमेथी खडायलो बीजाने कर्मरहीत केम करी शके ? लोहीथी कपडां धोवाय ज नहि. माटे निर्बंध-मुक्त पुरुषोनी संगत करो के जेथी पळमां हमने पण 'छूटा' करशे.
SR No.537763
Book TitleJain Hitechhu 1911 Book 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVadilal Motilal Shah
PublisherVadilal Motilal Shah
Publication Year1911
Total Pages338
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Hitechhu, & India
File Size21 MB
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