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साधु कोने कहेवा ?
केशो कहां बिगाडयो, जो मुंडे सो बार ? मनको काहे न मुंडियो, जामें विषय विकार ? . मन मेवासी मुडिये, केश हि मुंडे काहे ?
जो किया सो मनहि किया, केश किया कछु नाहे. . स्वांग पेहरे शुरा भया, दुनिया खाइ ख़ुदा जो सेरी सत् निकसें, सो तो राखे मुंढ.
(१) हे द्रव्यसाधुओ ! हे साधुवेषधारीओ ! हमारा माथाना केश एटले वाळनो शो वांक छे--तेणे हमारुं शुं बीगाडयु छे, के जेथी हमे सो वार-चारंवार एना उपर वैर लेवानी माफक मुंडवामां ज 'धर्म' ने समाप्त थतो मानो छो ? मुंड होय तो 'मन'ने मुंडो, के जेमां विषय विकार भरेला छे. बहारथी साधुनो वेष राखनारा घगाए ढेरंगी भो मनथी तो विषयविकारथी भरपुर छे-ए केश कहाडवानी एमनी इच्छा नथी !
(२) खरो मेवासी-खरो लूटारो तो 'मन' छे; एने मुंडे तो खरो साधु कहेवाय; केश मुंडेथी | थवान हतुं ? बीचारा केशे तो कांइ कयु नथी, जे काइ करेछे ते तो पेलं मन करेछे..
(३) साधुनो स्वांग पहेरवामां तो शुरातन घणुए छे; पण साधु थया पछी खाइ-पीने दुनीआंने खुदवानु-पजववानुं ज आवड्यु ! जे शेरी (Street ) मां 'सत्' याने 'परमतत्व' प्रगट थइ शके छे ते शेरीने तो अर्थात् कार्मग शरीरने तो मूढ दशामां-सुनमुन दशामां राखे छे; ए कार्मण शरीरद्वारा 'सत्'नो प्रकाश थइ शके छे ते छतां ए शरीरने खीलववा माटे काइ प्रयत्न करतो नथी.