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भक्ति द्वार है सांकडा, राइ दसमा भाय; मनहि जब मावत हो रहा, क्युं कर सके समाय ? राइ बता बिसवा, फिर विसनका विश; ऐसा मनवा जो करे, ताहि मिले जगदीश.
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मला जपुं न कर जपुं, मुख से कहुं न राम; राम हमारा हमको जपे, मैं बेठा रहुं विश्राम ! आखा विश्वनुं प्रतिबिंब भळाय छे. आ 'योग' नो विषय अति गहन छे, तेथी वीरला -- योगी जनो ज ते समजी शके छे.
(७) 'भक्ति द्वार' एटले जे दरवाजे थइने भक्तो परमात्मा पासे जइ शके छे ते दरवाजो एवडो तो सांकडो छे के जाणे रहना दाणान दसमो भाग जोइ ल्यो ! एवा सांकडा दरवाजामां थइने जवानुं छे छतां मन तो कहे छे के हुं हाथी उपर मात्रत बेसे छे ते जगाए बेसीने दरवाजामां पेसुं ! आ वात केम बने ? माटे मन जो अभिमान रूपी हाथीथी नीचे उतरीने न्हानुं थइ जायनम्रता शीखे तोन ते सांकडा दरवाजाथी प्रवेश करी परमात्मानी हजुरमां आवी शके. 'नमे ते हरिने गमे ' अर्थात् नम्रता राखेअहंपदशी दूर रहे ते माणस परमतत्वती प्राप्तिनो अधिकारी थाय.
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(४) वळी आगळ वधीने कबीरजी कहे छे के, रइना दाणाना दशमा भाग जेटलो दरवाजो छे माटे ते दरवाजे थइने जवानी इच्छा राखनार मन तो राइना वीसमा भागना पण वीसमा भाग जेवडुं बनावतुं जोइए.
(९.) म्हारे लोकोनी माफक हाथथी माळा जपवानी जरुर नथी अने मुखथी पण जपवानी जरुर नथी. हुं तो शान्त बेठो रहुंलुं अने म्हारो नम उलटो म्हने जये छे. ध्यानारुढ थइ परमात्मस्वरुपमां लीन व आत्मस्वरूप जोवाय छे.