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________________ श्री त्रिपृष्ठ वासुदेव • १०८ धर्म था रेन शासन (महपाडिs) विशेषis . .-११-२००८, भंगगा . वर्ष - २१ • is - १ त्रिपृष: वासुदेव अंत:पुर की स्त्रीयों के साथ सुखपूर्वक विल स करते थे। एक दिन कई गवैये आये। विविध रागों से गानेग के उन्होने त्रिपृष्ट वासदेव का हृदय हर लिया। रात्रि के समय रे गवैये अपना मधुर गाना गा रहे थे। श्री त्रिपृष्ट वासुदेव ने अपने शय्यापालक को आज्ञा दी, 'जब मुझे निद्रा आ जाये तब ग्वैयो का गान बंद करवा कर उन्हें बिदा कर देना। थोडी दे बाद त्रिपुष्ट वासुदेव को निद्रा आ गई। संगीत सुनने की लालसा में शय्यापालक ने संगीत बंद कराया नहीं। इस प्रकार रात्रि का कुछ समय गुजर गया। त्रिपृष्ट वासुदेव की निद्रा टूट गई। उस समय गायकों का गान चालू था, वे सुनकर । विस्मित हुा । श्री त्रिपृष्ठ वसिदेव शय्यापालक को पूछा : 'इन गयो को अभी तक क्यों बिदा नहीं किया ?' शय्यापालक ने कहा, 'हे प्रभु ! उनके गायन से मेरा हृदय अक्षिप्त सा हो गया था, जिससे मैं इन गायकों को बिदा न कर सका, आप के हुक्म का भी विस्मरण हो गया ।' यह सुनते ही वासुदेव को कोप उत्पन्न हुआ, पर उस समय छुपा रखा । प्रात: काल होते ही वे जब सिंहासन पर आरुढ हुये । त्ब रात्रि का वृतांत याद करके शय्यपालक को बुलवाया । व सुदेव ने सेवकों को आज्ञा दी, 'गायन की प्रीतवाले इस पुरुष के कान मे गर्म सीसा और तांबा डालो, क्योंकि उसके कान का दोष हैं। उन्होंने शय्यपालक को एकांत में ले जाकर उसके कान में अतिशय गर्म किया हआ सीसा डाला । भयंक र वेदना से शय्यपालक शीघ्र ही मरण हो गया । वासुदेव ने घोर अनिष्टकारी अशाता- . पिडाकारी कर्म बांधा । ऐसे कईं पापकर्मो और क्रूर ... अध्यवसाय से समकित रुप आभूषण का नाश करनेवाला त्रिपष्ट वासुदेव का पाप बांधकर, आयुष्य पूर्ण होते ही सातवें नर्क की भूमि में गया। इस त्रिपृष्ट वासुदेव की आत्मा काल धर्मानुसार त्रिशला की कोख से पैदा हुए और चोवीसमें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी हुए और शय्यापालक जीव इस काल में आहीर बना । एक दिन प्रभु महावीर काउसग्ग ध्यान लगाकर खड़े थे तब यह आहीर अपने बैलों को वहाँ छोड़कर गायें दुहने गया । बैल चरते चरते कहीं दूर गये । आहीर वापिस लौट, अपने बैलों को वहाँ न देखकर प्रभु को पूछा : 'अरे देवार्य ! मेरे बैल कहाँ गये? तूं क्यों बोलता नहीं हैं । तूं मेरे वचन क्यों सुनता नहीं है ? ये तेरे कान के छिद्र क्या फोगट ही है ? इतना कुछ कहने के बाद जब प्रभु से उत्तर न मिला तो क्रोधित होकर प्रभु के दोनो कान में बबूल की शूले डाल दी । शूले आपस मे - इस प्रकार मिल गई मानो वे अखण्ड एक सलाई समान दिखने लगी। ये कीले कोई निकाल ले-ऐसा सोचकर वह ग्वाला, बाहर दिखता शूलों का भाग काटकर चलता बना । उस समय शूलों की पीड़ा से प्रभु जरा से भी कंपित न हुए। वे शुभ ध्यान में लीन रहे और प्रभु वहां से विहार करके अपापानगरी पधारें। सिद्धार्थ नामक बनिये यहाँ पधारे, वहाँ खरल नामक वैद्य ने कान का देखा और प्रभु के कान में से दो सँड़सी द्वारा दोनों कान में से दोनों कील एक साथ खींच निकाली । रुधिर सहित दोनो कीलें मानो प्रत्यक्ष अवशेष पीड़ाकारी कर्म निकल जाते हो उस प्रकार निकल पड़ी। कीले खींचते समय प्रभु को ऐसी भयंकर वेदना हुई कि उनसे भयंकर चीख निकल पडी । खरल वैद्य और सिद्धार्थ वणिक ने 1. औषधि से प्रभु के कान का इलाज किया और प्रभु के ८. घाव भर गये । इस प्रकार त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में शय्यपालक के कान में गर्म सीसा भरने का कर्म प्रभु के भव में भगवान को कान में कीले ठुकवाकर भुगतना पड़ा।
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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