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श्री प्रसन्नचंद्र राजऋषि
• १०८ धर्म प्रथा चैन शासन (खडवाडिङ) विशेषांत ४-११-२००८, मंगणवार • वर्ष २१ खंड - १
श्री प्रसन्नचंद्र राजऋषि
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पोतनपुर नगर के प्रसन्नचंद्रराजा प्रभु महावीर पोतनपुर पधारे हैं और मनोरम नामक उद्यान में रुके हैं - जानकर राजा प्रभु की वंदना के लिए पधारे और मोह का नाश करनेवाली प्रभु की देशना सुनी। संसार से उद्वेग पाया और अपने बालकुमार को राज्यसिंहसन पर बिठाकर उन्होने प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। प्रसन्नचंद्र राजर्षि क्रमश: सूत्रार्थ के पुरोगामी हुए। प्रभु विहार करते करते राजगृह नगरी पधारे । प्रभु के दर्शनार्थ श्रेणिक राजा पुत्र-परिवार तथा हाथी की सवारी एवं घोडों वगैरह विविध दलो कक्षाओं के साथ निकले। उसकी सेना में सबसे आगे सुमुख एवं दुर्मुख नामक सेनानी चल रहे थे । वे परस्पर वार्ताएं करते चल रहे थे । मार्ग में उन्होने प्रसन्नचंद्र मुनि को एक पांव पर खडे होकर, ऊँचे हाथ रखकर तपस्या करते देखा । उनको देखकर सुमुख बोला, 'अहोहो ! ऐसे कठिन तपस्या करनेवाला मुनि को स्वर्ग- मोक्ष दुर्लभ नहीं है।' यह सुनकर दुर्मुख बोला, 'अहो ! यह तो पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र है । बड़ी गाड़ी मे बछड़े को जोडने की तरह राजाने राज्य भार अपने बालकुमार पर छोडा है, उसे क्या धर्मी कहेंगे ? इसके मंत्री चंपानगरी के राजा
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वाहन से मिलकर राजकुमार को राज्य पर से पद से भ्रष्ट करेंगे, इसीलिये इस राजा ने उलटा अधर्म किया है।' इस प्रकार के वचन ध्यानस्थ मुनि प्रसन्नचंद्र ने सुने और मन ही मन सोच-विचार करने लगे, 'अहो ! मेरे अकृतज्ञ मंत्रीयो को धिक्कार है, वे मेरे पुत्र के साथ ऐसा भेदभाव रखते हैं ? यदि इस समय मैं राज्य संभाल रहा होता तो उन्हें कड़ी
सजा देता ।' संकल्प विकल्प से दुःखी राजर्षी अपने व्रत को भूलकर मन ही मन मंत्रियों से युद्ध करने लगे । आगे बढ़ते हुए श्रेणिक
महाराज अपनी सवारी के साथ प्रभु के पास पधारे । वंदना की और भगवंत से पूछा- "मार्ग में जा मुनि है, उस स्थिति में
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वै मृत्यु प्राप्त करें तो कौनसी गति को जायेंगे प्रभु बोले, 'सातवी नर्क जायेंगे' यह सुनकर श्रेणिक राजा विचार में पड़े, 'साधु को नरकगमन ! हो नहीं सकता, प्रभु का कहना मुझसे बराबर सुनाई दिया नहीं होगा। थोडी देर के बाद प्रेणिक राजा ने पुन: पूछा: 'हे भगवान! प्रसन्नचंद्र मुनि इस सनय कालधर्म प्राप्त करे तो कहाँ जाये?' भगवंत ने कहा : सर्वार्थ सिद्ध विमान को प्राप्त करें ।' श्रेणिक ने पूछा: 'भगवंत आपने
क्षण भर के अंतर में दो अलग बात क्यों कहीं ?' प्रभु ने कहा : 'ध्यान भेद के कारण मुनि की स्थिति दो प्रकार की हो गई इसीलिये मैंने वैसा कहा । दुर्मुख की वाणी सुनकर प्रसन्नचन्द्र
क्रोधित हुए थे और कोपित होकर अपने त्री वगैरह से मन ही मन युद्ध कर रहे थे। जीस समय आपने वंदना की, उस समय वे नर्क के योग्य थे। उस समय से आपके यहाँ आने के दौरान उन्होंने मन में सोचा कि अब मेरे सभी आरध समाप्त हो चुके हैं। मस्तिष्क पर रखे सिरस्त्राण से शत्रु को पर गिराऊँऐसा मानकर सिर पर हाथ रखा। सिर पर लंच करा हुआ जानकर 'में व्रतधारी हूँ' ऐसा ख्याल आ गया । अहो हो ! मैने क्या कर डाला ? इस प्रकार अपनी आत्मा को कोसने लगे । उसका आलोचना प्रतिक्रमण करके पुनः वे प्रश्स्त ध्यान में स्थिर हुए हैं। आपके दुसरे प्रश्न के समय वे सर्वार्थ सिद्धि के योग्य हो गये हैं । इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था तब प्रसन्नचंद्र मुनि के समीप देव दुंदुभि वगैरह बजते सुनाई दिये । सुनकर श्रेणिक ने प्रभु को पूछा : 'स्वामी ! वह क्या हुआ ?' प्रभु बोले : 'ध्यान में स्थिर प्रसन्न चंद्र मुनि को केवलज्ञान हुआ है और देवता के वलज्ञान की महीमा का उत्सव मना रहे हैं। अंतिम घडी पर
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क्षपक श्रेणी में पहुँचते ही प्रसन्नच्द्र राजऋषि केवलज्ञान बने हैं ।