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________________ श्री सुकोशल मुनि १०८ धर्म थान शासन (अ64155) विशेषis . ता. ४-११-२००८, भगवा२ . वर्ष -२१ . अं- १ *- श्री सूकोशोल मुनि - Namaa एक सय अयोध्या नगरी में कीर्तिधर नामक राजा थे। सहदेवी नाम क उनकी पत्नी थी। भर जवानी होने से वे इन्द्र समान विष सुख उपभोग रहे थे। एक बार उन्हें दीक्षा लेने की इच्छा हुइ । मंत्रियों ने उन्हें समझाया कि 'जहाँतक पुत्र उत्पन्न नहि हुआ है, वहाँ व्रत लेना योग्य नहीं है। आप अपुत्रवान् व्रत (गे तो पृथ्वी अनाथ हो जायेगी। इसलिए स्वामी ! पुत्र उत्प न हो तब तक राह देखो।' इस प्रकार मंत्रियों के कहने से कीर्तिधर राजाशर्म के मारे दीक्षा न लेक र गृहवास में ही रहे। कुछ अरसे बाद सहदेवी रानी से उन्हें सु कोशल नामक पुत्र हुआ। पुत्र जन्म जानकर पति दीक्षा लेगा - यूं सोचकर सहदेवी ने उसे छुपा दिया। बालक को गुप्त 'खने पर भी कीर्तिधर को बालक की बराबर जानकारी मिल गई। उसे राजगद्दी पर बिठाकर उसने विजयसेन नाम मुनि से दीक्षा प्राप्त की। तीव्र तपस्या एवं अनेक परीसह महते हुए राजर्षि गुरु की आज्ञा से एकाकी विहार करने ल । विहार करते करते एक बार वे अयोध्या नगरी पधारे। एक माह के उपवासी होने के कारण पारणा करने के लिए भिक्षा मने मध्याह्न को शहर में घुम रहे थे। 'मुनि सांसारिक समर के पति है और यहाँ ,पधारे होने के कारण सुकोशल उन्हें मिलेगा तो वह भी दीक्षा ले लेगा। पतिविहीन तोहूंही पुत्रविहीन भी हो जाऊंगी, कीर्तिधर मनि को नगरी से बाहर राज्य कीशलता के लिए निकाल देना चाहिये' - ऐसा सोचकर रानी ने अपने कर्मचारियों द्वारा मुनि को नगर बाहर निकलवा दिया। इस बात को जानकर सुकोशल की धाव माता जोर से रोने लगी। राजा सुकोशल ने उसे रोने का कारण पूछा तब उसने बताया : 'आपके पिता, जिन्होंने राजगद्दी पर आपको बिठाकर दीक्षा नी है, वे भिक्षा के लिए नगर में पधारे थे। मुनि से आप मिगेतोआपभी दीक्षाले लोगे, ऐसा मानकर आपकी माता ने उन्हें नगर से बाहर निकलवा दिया है, इस कारण मे रुदन कर रही हूँ क्योंकि मैं यह दु:ख सहन नहीं कर सकती।' सुकोशल विरक्त होकर पिता के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर व्रत की याचना की। उस समय पत्नी चित्रमाला गर्भिणी थी। वह मंत्रियों के साथ वहाँ आई। और सुकोशल को दीक्षा न लेने के लिए समझाने लगी लेकिन सुकोशल ने उसको कहा, 'तेरेगर्भ में जो पुत्र है उसका मैंने राज्याभिषेक कर दिया है' - यूं समझाकर सुकोशल अपने पिता से दीक्षा लेकर कड़ी तपस्या करने लगे। ममतारहित और कषायवर्जित पिता-पुत्र महामुनि होकर पृथ्वी के तल को पवित्र कर साथ ही विहार करते थे। पुत्र और पति वियोग से सहदेवी को बड़ा खेद हुआ। आर्तध्यान में मृत्यु पाकर गिरनार की गुफा में शेरनी रुप में अवतरित हुई। कीर्तिधर और सुकोशल मुनि चातुर्मास निर्गमन के लिए पर्वत की गुफा में स्थिर ध्यानस्थ अवस्था में रहे। कार्तिक मास आया तब दोनों मुनि पारणा करने शहर की और चले। वहाँ मार्ग में यमदूती जैसी उस शेरनी ने उन्हें देखा। शेरनी नजदीक आई और झपटने के लिये तैयार हुई। उस समय दोनों साधु धर्मध्यान में लीन होकर कायोत्सर्ग के लिए तैयार थे। सुकोशल मुनि शेरनी के सन्मुख होने से प्रथम प्रहार उन पर किया, उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिया नाखूनरुपी अंकुश से उनके शरीर को फाड़कर बहते रुधिर का पान करने लगी एवं मांस तोड़ तोड़कर खाने लगी। उस समय सुकोशल मुनि, 'यह प शेरनी मेरे कर्मक्षय में सहकारी है' - ऐसा सोचते हुए र उन्हें थोड़ीसी भी ग्लानि न हुई। इससे वे शुक्ल - ध्यान में पहुंचते ही केवलज्ञान पाकर मोक्षपधारे। इसी प्रकार कीर्तिघर मुनि ने भी क्रमश: केवलज्ञान पाकर अद्वैत सुख स्थानरुपी परमपद प्राप्त किया।
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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