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________________ श्री रहनेमि .१०८ ध था शासन (6418) विशेषis .. ४-११-२००८, मंगलवार • वर्ष २१ •is - १ ___ एक बार भगवान नेमिनाथ अपने साधु समुदाय | किये हुए संयम का भंग करें। अगंधन कुल के सर्प भी के साथ विहार करते करते गिरनार पर्वत पर ठहरे थे। वमन किया हुआ पुन:खाने की इच्छा नहीं खते, इससे भगवान नेमिनाथ के संसारीपन के छोटेभाई रहनेमि अच्छा तो वे अग्नि में जाना पसंद करते है।' गोचरी लेकर प्रभु के पास पधार रहे थे। अचानक वृष्टि रहनेमि ने इच्छा दुहराई, जवानी भोग ले और हुई। बरसात से बचने के लिए मुनि नज़दीक की गुफा में धर्म तो बुढापे में भी होगा ऐसा कहा। राजीम तीजो महान घूसे। उसी समय साध्वी राजीमती प्रभु को वंदन करके चारित्रवान थी उन्होंने रहनेमि को प्रतिब धित करके लौट रही थी। उन्होंने भी अनजाने में गुफा मे प्रवेश समझाया, 'उत्तम मनुष्य भव प्राप्त हुआ है और यह किया। उनके वस्त्र बरसात में भीग गये थे इसलिये गुफा चारित्र लिया है तो भवसागर में भीगे हुए वस्त्र सूखाने के पार करने के लिए निकाल डालें। अपकाय जीवों की बजाय नर्क जाने के लिये क्यों विराधना की व्याकुलता तैयार हुए हो ? रहेनमि को के कारण धुंधले अंधकार बड़ा पश्चाताप हुआ। सर्व में समीप खड़े रहेनमि मुनि प्रकार के भोगों की इच्छा को उसने देखा नहीं। उन्होंने छोड़ दी और धुध ले प्रकाश में राजीमती को बिनंती की, ' वस्त्रविहीन दशा में राजीमती को देखकर मुनि कामातुर | मेरा यह पाप किसीको कहना नहीं।' हुए। उन्होंने राजीमती को कहा, 'हे भने ! मैनें पहले भी राजीमतीने कहा, 'प्रभु सर्वज्ञ है, वे तो सब तुम्हारी आशा रखी थी। आज भी कहता हूँ कि अभी भी जानते ही है।' रहनेमिने प्रभु नेमिनाथ के पास जाकर भोग का अवसर है।' आवाज से रहनेमि को पहचानकर अपने दुश्चारित्र की आलोचना की और एक र्ष तक सुंदर राजीमती ने वस्त्रों से अपना शरीर ढक कर कहा, तपश्चर्या और चारित्र पालकर केवलज्ञान प्राप्त किया व कुलीन जन को ऐसा बोलना शोभास्पद नहीं है। आप मोक्ष पधारे। नमिजी के लघु बन्धु हो और उनके शिष्य भी हो फिर भी आप में ऐसी दुर्बुद्धि आई कहाँ से ?मैं सर्वज्ञ की - शिष्या होकर आपकी इच्छापूर्ति नहीं करूंगी। .. ऐसी इच्छा मात्र से आप भवसागर में डूबोगे। मैं उत्तम कुल की पुत्री हूँ, आप भी उत्तम कुल के पुरुष हो। हम कोइ नीच कुल में उत्पन्न नहीं है जो ग्रहण Ove भवसागर में डूबोगे।
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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