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श्री नयसार
.१०८ धर्म थान शासन (अ6पाडिs) विशेषis ..४-११-२००८, मंगलवार
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जंबुद्वीप में जयंती नामक नगरी थी। वहाँ शत्रुमर्दन नामक राजा राज्य करते थे। उसके पृथ्वी प्रतिष्ठा नामक गाँव में नयसार नामक स्वामीभक्त मुखिया थे । उसे कोई साधुमहात्माओं के साथ सम्पर्क न था । लेकिन वह अपकृत्यो से परांगमुख दूसरो के दोष देखने से विमुख और गुणग्रहण में तत्पर रहता था।
सार्थ चल पड़ा । हमें कुछ भी भिक्षा न मीली । हम सार्थ को ढुंढते हुए आगे ही बढ़ते गये। लेकिन हमें सार्थ तं मिला नहीं
और इस घोर वन में पहुँच गये।' नयसार ने कहा, अरे रे! वह सार्थ कैसा निर्दय ! कैसा विश्वासघाती ! उसके आशा पर साथ चले साधुओं को साथ लिये बिना स्वार्थ में नितु बनकर चल दिया । मेरे पुण्य से आप अतिथि रुप में पधारे है, यह अच्छा ही हुआ है। इस प्रकार कहकर नयसारः पने भोजन स्थान पर ले गया और अपने लिये तैयार किये गये अन्न-पानी
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से मुनियों को प्रतिलाभान्वित किया। मनियों ने लग जाकर
एक बार राजा की आज्ञा से लकड़े लेने वह पथ्य लेकर कई बैलगाडियों के साथ जंगल में गया । वृक्ष काटते हुए मध्याह्न का समय
हुआ और खूब भूख लगी। उस समय | नयसार के साथ आये अन्य
अपने विधि अनुसार आहार ग्रहण किया । * जन करके नयसार मुनियों के पास पधारे और प्रणाम कर। कहा : 'हे भगवंत! चलिये मैं आपको नगर का मार्ग बत दूं ।' मुनि नयसार के साथ चले और नगरी के मार्ग
पर पहुंचा गये । वहाँ मुनियों ने एक वृक्ष के नीचे बैठकर नयसार को धर्मोपदेश दिया। सुनकर अपनी आ मा को धन्य मानते हुए नयसार ने उसी समय समकित प्राप्त किया एवं मुनियों को वंदना करके वापिस लौटा और सर्वक टे हए काष्ट राजा को पहुँचकर अपने गाँव आया।
सेवकों ने उत्तम भोजन सामग्री परोसी, नयसार को भोजन के लिये बुलाया । स्वयं क्षुधा-तृषा के लिए आतुर था लेकिन
कोई अतिथि आये तो उसे भोजन कराने के बाद भोजन करूँ । एसा सोचकर आसपास देखने लगा । इतने में क्षुधातुर, तषातुर और पसीने से जिनके अंग तरबतर हो गये थे ऐसे कुछ मुनि उस तरफ आ पहुँचे । 'अहा ! ये मुनि मेरे अतिथि बनें, बहुत अच्छा हुआ ।'- ऐसा चिंतन करते हुए नयसार ने उनको नमस्कार करके पूछा, 'हे भगवंत ! ऐसे बडे . जंगल में आप कहाँ से आये हैं ! कोई शस्त्रधारी . भी इस जंगल में अकेले घुम नहीं सकता।' मुनियों ने कहा : 'प्रारंभ से हम हमारे स्थान से सार्थ के साथ साथ चले थे। मार्ग में हम एक गांव में भिक्षा लेने गये और
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तत्पश्चात् यह दरियादिल नयसार धर्म का अभ्यास करते, तत्त्वचिंतन और समकित पालते हुए काल निर्गमन करने लगा। इस प्रकार आराधना करते हुए यसार अंत समय पर पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करके मृत्यु पाकर
सौधर्म देवलोंक में पल्योपम आयुष्य ला देवता 2. बना । यही आत्मा सत्ताईसवें भर में त्रिशला ' रानी की कोख से जन्मकर चोर्ब सवें अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी बनी।