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________________ श्रीग वि. सं. २०१४, खासो सुह-७, भंगणवार ता. ७-१०-२००८ १०८ धर्म था विशेषां दृष्टिविष सर्प मरकर इस कुंभराजा की रानी की कुक्षी से अवतरित हुआ। उसका नाम नागदत्त रखा । यौवन अवस्था में पहुँचने पर एक बार अपने झरोखे में खडे खडे नीचे जैन मुनियों को जाते हुए देखा और सोचते सोचते जातिस्मरण होते ही उसको सर्प का अपना पूर्व भव याद आया। उसने नीचे उतरकर साधू महाराज को वंदन किया । वैराग्य उत्पन्न होने से दीक्षा लेने के लिये भी तैयार हुआ । मातापिताने उसे बड़ा समझाया पर किसीकी बात न मानते हुए महाप्रयास से उनकी आज्ञा लेकर उसने सद्गुरु से दीक्षा ग्रहण की। वह तिर्यंच योनि से आया होने के कारण, वेदनीय एक दृष्टिविष सर्प था । उसको किसी भी तरफ से देखने वाले की मृत्यु हो जावे ऐसा विषयुक्त उसका शरीर था । पूर्व भव में किये हुए पापों का जाति ज्ञान होने से उसे याद तो आया तो उस कारण से वह बिल मे ही मुँह रखने लगा - मुँह बाहर निकाले और कोई देखे तो लोगों की मृत्यु हो जाय - ऐसा मुझे नहीं करना चाहिये ऐसा सोच समझकर पूंछ बाहर रहे उस प्रकार से बिल में रहने लगा । कुंभ नामक राजा के पुत्र को किसी सर्प ने डसलिया । जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी। कुंभ राजा शत्रु पर #श्री कुरगडु मुनि बहोत क्रोधित हुए और उन्होंने हुक्म दिया जो कोई सर्प को मारकर उसका शव ले आयेगा तो हरेक शब के लिए एक एक सुवर्णमुद्रा इनाम में दी जायेगी। इस ढंढेरे से लोग ढूंढ ढूंढ कर साँप मारकर उनके मृत शरीर को लाने लगे। एक व्यक्ति ने दृष्टिविष सर्प की पूंछ देखी। वह जोर से पूंछ खींचने लगा मगर दयालु सर्प बाहर न निकला । पूंछ टूट गयी। सर्प वह वेदना समता से सहन कर रहा था। और टूटी हुई पूंछ का थोडा भाग दीखते ही उस व्यक्ति ने काट लिया । सर्प सोचने लगा इस प्रकार मत समझ कि यह मेरा शरीर ही कट रहा है परंतु ऐसा समझ कि यह कटने से तेरे पूर्व किये हुए कर्म कट रहे है। यदि उनको समता से सहन करेगा तो यह दर्द भविष्य में तेरा भला करनेवाला होगा' ऐसा सोचकर उसने अंत में मृत्यु पायी । एक रात्रि को कुंभ राजा को स्वप्न आया कि तेरा कोई पुत्र नहीं है उसकी लगातार चिंता तूं करता है। यदि मैं अब कोई सर्प को नहीं मारूंगा ऐसी प्रतिज्ञा तूं लेगा तो पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। इस कारण कुंभ राजा ने अब किसी सर्प को न मारने की किसी आचार्य से प्रतिज्ञा ली । www যার। २४० कर्म का उदय होने से वह भूख सहन नहीं कर पाता था। इस कारण एक पोरसी मात्रं का भी पच्चकखाण उससे नहीं कीया जाता था । ऐसी उसकी प्रकृति होने से गुरु महाराज ने योग्यता जानकर उसको आदेश दिया कि 'यदि तुझसे तपश्चर्या नहीं हो सकती तो तुझे समता ग्रहण करनी, इससे तुझे बडा लाभ होगा ।' वह दीक्षा का पालन भली प्रकार करने लगा । परंतु हररोज सुबह में उठकर एक गडुआ (एक प्रकार का बर्तन) भरकर कुर (चावल) लाकर रोज उपयोग करे तब ही उसे होश-कोश आता था। ऐसा हररोज करने से उनका नाम कुरगड पड गया। जिन आचार्य से कुरगडु ने दीक्षा ली थी उनके गच्छ में अन्य चार साधू महातपस्वी थे। एक साधू एक माह के लगातार उपवास करते । दूसरे साधू लगातार दो माह के उपवास करते थे । तीसरे साधू तीन माह के उपवास के बाद पारणा करते थे और चौथे साधू चार माह के उपवास बिना रुके कर सकते थे । ये
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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