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"स्वर्गारोहण तिथि (गुणानुवाद) श्रीमद् विजय आचार्य श्री प्रेमसरीश्वरजी म. सा.
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आपश्री बीसवीं सदी के एक महान ज्योतिर्धर | उदासीनता में शासन चिंता रहती थी । उ. के अंदर और तपागच्छम्पी गगन में सूर्य के समान चमकते हुए संयम पालन का आनंद पूर्ण रूप से अभिव्य त, होता तथ नवीन कर्म साहित्य के सूत्रधार, संयममूर्ति था । उनके आग्रह में संयम पालन का पक्ष हता था, सिद्धान्तमहोदधि एवं परमात्मा श्री महावीर स्वामी की तथा उनकी प्रेरणा में सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति क रणकार पाट पामरा में छींयोत्तेर (७६) वे चारित्रनायक स्व. पू. सुनाई देता था । छोटे बड़े सभी को उनके हृदय का
आ. श्री प्रेम सूरीश्वरजी महाराजा साहेब थे । आपश्रीने निर्मल स्नेह मिलता था । जीवन जीने का शास्त्रीय मार्ग सिद्धांत महोदधि एवं कर्म साहित्य निष्णांत आदि दर्शन मिलता था । सभी उनके पावन - चरणों में स्वयं का विशेषणं को सार्थक कीया है | उस समय आपके शिष्य
हृदय खोल देते थे । और पश्चाताप एवं प्रायशित करके परिवार सहित पांचसौ से अधिक परिवार वाले हुए।
अपने आप में निर्मल हो जाते थे। प्रद्धेय और आराध्य गुरुदेव जिनशासन के
वे एक महान तपस्वी थे तथा अभ्यंतर प के वे तत्त्वज्ञान की एक शाखा कर्मसाहित्य में जिस तरह
आजीवन साधक रहे थे । अपने पास रहे हुए श्रमणों के अद्विति विद्वान थे, उसी तरह आगमिक साहित्य की
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के पालन लिये । हमेशा उनकी अनुप्रेक्षा भी असाधारण थी । उत्सर्ग मार्ग और एक जागृत पहरेदार थे। अपवाद मार्ग की उनकी सुझ अद्भूत थी।
अहमदाबाद के दैनिक अखबार में एक मर्तवा । झाचार्य श्री कई महान गुणों के धनी थे । उनका
समाचार छपा हुआ था कि रीलीफ के उपर भ. दुपहरी जीवन निर्मल और पवित्र था । विद्वता के महासागर
में डामर की गरम गरम सडक पर खुले पांव नी बी दष्टि होते हुए भी महान गंभीर थे सर्वोच्च स्थान पर
कीये हुए मंदमंद गति से चलता हुआ छोटे कद का बिराजमान होते हुए भी उनमें अत्याधिक, नम्रता थी ।
पुस्प आपको कहीं दिख जावे तो उसको जैनाचार्य श्री संयम की अत्याधिक जागृति रखते थे । आश्रितो के
"प्रेमसूरी" समझना । ऐसे शब्दों में जिनकी पहचान दी E आत्मा का श्रेय होवे इसके लिये रात दिन ध्यान रखते
थी, वही अध्यात्म तेज पूंज पूज्यपाद स्व. आ श्रीमद् थे । जके अंदर संयम भरपूर था एवं वे स्वयं संयम
विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा याने जैन एंघ का एक की एक जीती जागृति मूर्ति थे । संयम उनका प्राण था
अनमोल आभुषण । अजोड बुद्धि प्रतिमा के और
सुविशुद्ध संयम के स्वामी थे । उस काल i "कर्म । संयम के साथ वे अपार वात्सल्य के सागर थे । सैकडों माधुओं के जीवन उद्यान को नवपलपवित रख
प्रकृति' ग्रन्थ का नाम भी आज जितना प्रचलित नहीं
था, और जव ऐसे ग्रन्थ के कोई अध्यापक भी नहीं थे, कर सुरक्षित रखा एवं गुण स्पी पुष्पों से समृद्ध कीया ।
ऐसे काल में “कर्म प्रकृति" की प्रत लेकर उपमें रहे कभी भी उनके अंदर अभिमान का स्पर्श नहीं हुआ । कभी भी स्वप्रशंसा नहीं करी तथा कभी भी पर निंदा
हुए कर्म सिद्धांत के उपर ताला लगा हुआ , उसे
आपने गुरु कृपा और अजोड प्रतिमा से चारो द्वारा की बात नहीं करी । उन्होंने जीवन पर्यन्त गंगा बनकर
खोलकर बाद के काल के अभ्यासीयों के लिये इस ग्रन्थ बहते रहना पसंद कीया एवं इस गंगा में पतितों को
के जटिल गणितों और सुक्ष्म सिद्धांतो को सग्राह बनाने स्नान काने दिया । अनेकों को तृषा ज्ञान का गंगा का
में आप श्री का सिंह फाला था । प्रतिभा सम्पन युवान पान कराया । लेकिन अब यह गंगा पाताल गंगा बन
साधुओं की एक विशाल टीम द्वारा “वंध विधा-'' ग्रंथ
के उपर लाखो श्लोक प्रमाण नया कर्म साहि य का उकी गंभीरता में तत्त्व चिंतन रहता था, उनकी
अनुसंधान 21520 - 3
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गई है ।।