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Ø શાબોધ સ્મારિકા કી કુછ સમીક્ષા
जैन शासन (अठवाड5) * वर्ष 13 * २६/२७* ता. २७-२-२००१
भगवान महावीर के २५०० वे निर्माण महोत्सव पर प्रकाशित दिशाबोध स्मारिका की कुछ समीक्षा (वैसा कही महावीर जन्म कल्याणक शताब्दिमें होने वाला है। अज्ञानी कया करें ? )
दिशाबोध स्मारिका
प्रकाशक : भगवान महावीर का २५०० निर्वाण महोत्सव श्री जैन सांस्कृतिक संघ, रुड़की विश्वविद्यालय रुड़की. के १३ १०५ पेज पर लिखा है कि :
कुछ शास्त्रों में नारी का घोर अपमान किया गया है। कहा गया है कि :
वज्रज्वलनलेखेव, भोगिदंष्ट्रेव केवलम् ।
वनितेयं मनुष्याणां संतापभपदयिनी । ज्ञानाभव पृष्ठ - १४२ श्लोक ३११
अर्थात् - यह स्त्री मनुष्यों को वज्राग्नि की ज्वाला के समान और सांप की डाढ के समान भय और संताप देने वाली है। आगे कहा गया है।
अप्युक्तुङ्ग पतिष्यन्ति नरा नार्यङ्ग सङ्गताः ।
यथा वामिति लोकस्य, स्तनाभ्यां प्रकटीकृतम् (२२ ) अर्थात् स्त्रियों के दोनों स्तन प्रकट करते है कि स्त्री के अंगसंग से जिस प्रकार हमारा पतन हुआ है इसी प्रकार जगत के बड़े-बड़े पुरुष स्त्री के अंग संग से नीचे गिरेंगें ।
अर्थात् स्त्री को घोर नरक बताया है। स्त्री पुरुष के मैथुन को तो घोरहिंसा का कार्य बताया है। स्त्रियों के अंग को अपवित्र बताया है।
कुष्टव्रणमिवाज वाति स्वतिपतिकाम ।
यत्स्त्रीणां जघनद्वारं, रतये तद्धि रात्रिणां (१४)
अर्थात् स्त्रियों का जघन द्वार जो कुष्ठ के घाव के समान निरन्तर झरता है तथा दुर्गन्ध से बासता है वह भी रात्री पुरुषों की रति (प्रीति) के लिए है।
कहते हैं
वक्तुमपि लज्जनीये, दुर्गन्धे मूत्रशोणितद्वारे । जघनबिले वनितान रमते बालो न तत्वज्ञः (१६)
अर्थात् स्त्रियों के योनिछिद्र का नाम लेते ही लज्जा आती है, फेर दुर्गन्धमय और मूत्र और रुधिर के झरने का द्वार है। यानि स्त्री
के शरीर को कितना नरक बताया गया है, जबकि इन्हीं अंगों से शास्त्रकार का भी जन्म अवश्य हुआ होगा । जब आचार्य कहते हैं
मैथुनाचरणे मूढ म्रियन्ते जन्तुकोटयः ।
योनिस्समुत्पन्नाः लिंग संघ प्रपीडिता: । (२९)
अर्थात् हे मूढ योनिरंध्र में असंख्य जीवां की कोटि की उत्पत्ति होती है। मैथुनाचरण से वे सब जीव घाते जाते हैं। उनकी हिंसा से ही दुर्गति में दुःख सहने पड़ते हैं ।
शास्त्रकार ने कितनी अज्ञानता का परिचय दिया है। अपने माता पिता को बेचारे ने घोर पाप का भागी सिद्ध किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि आज जो गृहस्थ है वह आने वाले लाखों वर्षो कभी दुःख से मुक्त नहीं हो सकता, क्योकि एक बार के मैथुन से ही वह करोड़ों जीवों की हत्या कर रहा है। इसके अतिरिक्त नारी की
का भी बहुत ही घृणित और मूर्खतापूर्ण वर्णन किया गया है। ऐसे ग्रन्थ आज जैन मन्दिर में विद्यमान हैं।
स्त्री जो पुरुष की पूरक है। अनन्त आत्मायें जो मुक्त होने वाली है, या अभी भटकने वाली है नारी के ही गर्भ को अपना माध्यम चुनती है। तीर्थंकर भी बिना माता-पिता के सम्भोग के पैदा नहीं हो सकते और तीर्थंकर के माता-पिता भी उतने ही पूज्य होते हैं। जितने की तीर्थंकर स्वयं । स्त्री पुरुष का मिलन एक गर्मिक कृत्य है न कि घोर हिंसा का कार्य । स्त्री पुरुष से भी अधिक पवित्र और पूजनीय होती है। इस प्रकार की शास्त्रों की बातें किसी भी समझदार और सभ्य समाज को स्वीकृत नहीं हो सकती ।
पाठक इसे शास्त्र निन्दा न समझें। मन्दिर में खी रहने वाली हर पुस्तक शास्त्र नहीं होती। शास्त्र तो वह होता है जो मनुष्य को बुद्धि अनुसार कार्य करने की प्रेरणा दे ।
के
हर्षवर्धन जैन बी. ई. - तृतीय वर्ष
J.
नारी नर की जन्मदात्री है। संस्कारी समाज पर धार्मिक लोक पर, चरित्र सम्पन्न जातियों पर नारी का अपार ऋण है । नारी के इस