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________________ हिम२-स-प्रहाय स. . પ૩૫ है । उन्होंने इसके कुछ ऐसे सिद्धान्तोंका भी उल्लेख किया है जो मूलसंघकी दृष्टि से ठीक नहीं है-प्रचुरपापके कारण हैं: १ वज्रनन्दिने मुनियों के लिए अप्रासुक चनोंके खानमें दोष नहीं बतलाया । २ उसने प्रायश्चित शास्त्र और दूसरे ग्रन्थ विपरीत रचे । ३ वह कहता है कि बीजों में जीव नहीं होते, ४ मुनिको खड़े होकर भोजन करने की ज़रूरत नहीं है, ५ प्रासुक ( पकाये सुखाये पीसे हुए पदार्थ ) आहारकी कैद नहीं चाहिए । ६ वह मुनियोंके लिए सावध दोष और गृहकल्पित दोष नहीं मानता । ७ उसने लोगोंसे खेती, बसति वाणिज्य आदि कराके और शीतल जलको उपयोग में लाकर प्रचुर पापका संचय किया। इन सब भेदोंका अच्छी तरह खुलासा तब हो जब कि इस संघके आचार्योंके बनाये हुए श्रावकाचार और यत्याचारक ग्रन्थ मिलें । मालूम नहीं, इस समय इस संघके अनुयायी हैं या नहीं। यापनीय संघ। कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावनिय संघ भट्टो सिस्किलसादो हु सेवडदो ॥ कल्याण नाम नगरमें-जो आजकल निजामके राज्यमें है-विक्रममृत्युके . ७०५ वर्ष बाद इस संघकी उत्पत्ति हुई। श्रीकलश नामके किसी श्वेताम्बराचार्यने इसकी स्थापना की। शाकटाग्न व्याकरणके कर्ता श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्ति इसी संघके आचार्य थे। इसके सिद्धान्तोंमें मूलसंघके सिद्धान्तोंसे क्या भेद है, इसका पता नहीं लगता। इसमें भी नन्दिसंघ नामकी एक शाखा है। यह संघ भी दक्षिण कर्णाटककी तरफ़ रहा है। काष्ठासंघ। आदिपुराणके कर्ता जिनसेनके विनयसेन नामके एक गुरु भाई थे । इन विनयसेनका एक कुमारसेन नामका शिष्य था। नन्दितट नामके नगरमें सन्यास धारण करके और उस सन्याससे भ्रष्ट होने पर इसने फिर दीक्षा न ली और अपना नया संघ स्थापित किया। इस संघका नाम काष्ठासंघ प्रसिद्ध किया गया और कुमारसेनके ही समयमें सारे बागड़ प्रान्तमें इसका प्रचार हो गया ! *रतलाके पास सागवाड़ा वांसवाड़ा आदिके आसपासका प्रान्त ।
SR No.536627
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1915 07 08 09 Pustak 11 Ank 07 08 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1915
Total Pages394
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size11 MB
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