________________
૫૨૩
हैन-टायन. ३००० वर्ष पहलेके विद्वान् हैं। वैदिक शाकटायनका कोई व्याकरण ग्रन्थ अवश्य होना चाहिए; क्योंकि पाणिनिने उनके मतका उल्लेख किया है; परन्तु वह अभी तक प्राप्य नहीं है । ___ ईस्वीसन् १८९३ में मि० गुस्त आपर्ट नामके यूरोपियन पंडितने मद्रास में ' शाकटायनप्रक्रियासंग्रह' नामका ग्रन्थ प्रकाशित किया और उसकी भूमिकामें यह सिद्ध किया कि यह वही शाकटायन व्याकरण है, जिसका कि उल्लेख पाणिनि आदि ऋषियों ने किया है। साथही यह भी प्रकट किया कि ये शाकटायन जैन थे। ___ उस ग्रन्थके प्रकाशित होते ही इतिहासज्ञ विद्वानोंके सामने एक महत्त्वका प्रश्न खड़ा हो गया और । वे इस विषयमें विचार करने लगे। जैनोंने भी इस चर्चाको सुनी, वास्तवमें इस विषय पर विचार करनेके प्रधान आधिकारी जैन ही थे, परन्तु उन्होंने इसकी कुछ आवश्यकता न समझी । वे केवल यह कह कर उछलने लगे-अभिमानका अनुभव करने लगे कि हमारा व्याकरण सबसे श्रेष्ठ
और सबसे प्राचीन है ! बस, वे अपने कर्तव्यकी पालना कर चुके ! ___इतिहासके राज्यमें किसी धर्म सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष पर पक्षपात नहीं किया जाता। यहां केवल सत्यकी उपासना होती है और उसकी प्राप्तिके लिए इतिहासज्ञ लोग निरन्तर प्रयत्न किया करते हैं। आपर्ट साहबकी कल्पना • यद्यपि कल्पना ही थी; परन्तु कल्पना को कल्पना सिद्ध करनेके लिए भी प्रमाणोंकी आवश्यकता होती है। अबतक कई विद्वान् यह सिद्ध करनेके प्रयत्न कर चुके हैं कि ये शाकटायन वैदिक शाकटायन से भिन्न हैं; परन्तु इस विषयमें दक्षिणके वृद्ध इतिहासज्ञ प्रो० काशीनाथ बापूजी 'पाठकको जितनी सफलता प्राप्त हुई है उतनी अभी तक किसीको भी न हुई थी। पाठक महाशयने अभी कुछ ही समय पहले 'इंडियन इंटिक्वेरी' में एक लेख प्रकाशित कियाथा। उसमें उन्होंने अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि उक्त शब्दानुशासन ( शाकटायन व्याकरण ) के कार्त जैन थे और वे राष्ट्रकूटवंशीय प्रसिद्ध महाराज अमोघवर्ष (प्रथम ) के समयमें हुए हैं। शाकटायनकी अमोघत्ति नाम की टीका उनकी स्वरचित टीका है। जैनधर्मानुयायी महाराज अमोघवर्षका नाम स्मरण रखने
१ पाठकजी जैनइतिहासके विशेष करके दक्षिण-कर्णाटकके जैनइतिहासके बहुत अच्छे जानकार है इस विषय में उनका ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा है।