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सभापति शेठ खेतशीभाइ का व्याख्यान,
ॐ
यद्भक्तः फलमर्हदादिपदवीं मुख्यं कृपेः शस्यवत् । चक्रित्वं त्रिदशेंद्रादितृणवत् प्रासंगिकं गीयते ॥
शक्तिं यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः संत्रः सोऽघहरः पुनातु चरणन्यासैः सतां मन्दिरम् ||
श्री वीरशासनरसी साधर्मी भाइयो, तथा वीर शासन से सहानुभूति रखनेवाले गृहस्थो,
पहिले कभी नहीं देखे गये ऐसे संयोगो और वस्तु-स्थितियों के बीच में होनेवाले जैन कॉन्फरन्सके इस ग्यारहवें सम्मेलनके सभापतिके महत्वपूर्ण कार्यको बजाने के लिए श्रीसंघने मुझे जो आज्ञा की है उसे मैं सादर - यद्यपि जवाबदारी के विचारसे डरता हुआ - शिरोधार्य करता हूँ; और आपको धन्यवाद देनेके साथ, मंगलाचरण संस्कृत पद्य श्रीसंघकी प्रार्थना की गई है, उसीको कुछ परिवर्तित शब्दो में फिर से करता हूँ कि - " बलवान इन्द्र भी जिसकी प्रशंसा करता है ऐसी शक्ति जैनसमाज उत्पन्न करनेवाले कार्यमें आप मुझे सहायता देवें; जिससे कि जैनसमाज 'दैविक अंशी पुरुषसमूह' के नामसे जैसे पहिले पहिचाना जाता था वैसे ही फिरसे पहचाना जाने लगे और उस अपना गतगौरव पुनः प्राप्त करनेका सौभाग्य मिले । "
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भाइयो, वर्तमान संयोगोंको मैं खास संयोग बताता हूं इसका कारण है सोलह वर्ष पहिले फलैौधीमें इस कॉन्फरन्सका प्रथम सम्मेलन हुआ था, उसके बाद बम्बई, बडौदा, पाटन, अहमदाबाद और भावनगर में इसके सम्मेलन हुए । प्रत्येक सम्मेलनमें जैन समाजको उत्साह उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ दिखाई दिया; यद्यपि उस समय भी आन्तरिक स्थितिका सुधार करने की तरफ पूरा लक्ष्य नहीं दिया गया था; और इसके बाद जब पूना, मुल्तान और सुजानगढ़ में इसके सम्मेलन हुए, उस समय अन्तःस्थितिसुधार तो दूर रहा मगर उत्साह भी बहुत ही कम दिखाई दिया था। स्वयं कॉन्फरन्स कार्यालय कह चुका था, कि सुजानगढ़ के