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'धर्म'
एस.
व लिखने से लेखक असमर्थ है. अब पाठकवर्यं ? आपको उपरोक्त गुणधारण करके गुणीजन होना पसंद है तो धर्म साधन करने से मत चुकना; क्यों कि विना धर्म साधन के जन्म जरा मृत्यु रुपी दावानल जैसे कठिन रोग शांत न होंगे, और धर्महीन मनुष्यों का आयुष्य निष्फल जाता है और धर्मचुस्त मानवों का आयुष्य स्थिरता रखने से अंतमें सुखका भोक्ता बनता है.
व्यवहार में अस्थिर देह को पोशने के लिये उत्तम उत्तम कपडे खरीदे जाते हैं, और जमाने मुबारिक कोट आदि सिलवाकर पहने जा रहे हैं, खुशबूदार तैल इत्तर से मगज को तर किया जाता है, और उपर सोना चांदी जवेहरात माणकपन्ना आदि से शरीर को शोभाप्रद बनाते हैं, यह व्यवहार दृष्टी से ठीक है परंतु साथ ही साथ जन्म जरा मृत्यु टालने को मन रूपी शरीर के लिये कपडा रूपी धर्म खरीद कर क्रिया रूपी कोट पाटलून सिलवाकर शील रूपी आभूषण पहन कर, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रुप मोती माणक पन्ने खरीद कर, संतोष रूपी सुगंधी से आत्मतृत्पि करने का प्रयत्न करोगे, तो परभव के लिये कुछ किया कहा जायगा, और इतना करनेसे ही शीवपुर में मोक्ष सुखका भोक्ता हो सकेगा; नही तो फिर किस ग तिमें जाना पडेगा, इसका बिचार वाचकवृंद की बुद्धि पर छोड़ता हूं, कहा है कि
अभ्यासेन क्रिया सर्वा अभ्यासात् सकला कला | अभ्यासाद ध्यान मौनादि किमभ्यासस्य दुष्करं ॥ ३ ॥