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'धर्म'
क्यू.
हे धर्मेच्छक बंधू ? धर्म कैंसा है कि कपट रूप पर्वत को क्षय करने में वज्र समान है, ऐसे धर्म रुपी वज्र को त्याग करने वाला कपटरूपी पुरुष अवश्य नरका धिकारी होता है, धर्म ऐसी वस्तु है कि यानो मोक्ष रुप नगर की नीम न हो, पुण्य रुपी महलकी शोभा न हो, शीवपुर रुपी स्थान की भांत न हो ! संपत्तियों का स्थान, रत्नोंका भंडार, चरित्र रुप . हीरे रखनेको पात्र, अगाध आनंद के झरे तुल्य मन वांछित दाता कोइ हो तो एक धर्म है.
जन्म लेना और मरना यह तो संसार का खास नियम है परंतु मनुष्य रुपी वृक्ष के मोक्षरुपी फल लगाने को धर्म रुपी जल सिंचन करके शीवपूर रुपी फल हाथमें लेकर अखंड आनंदमयामृत का पान करनेका उद्यम करनेमें कटिबद्ध हो. भय समद्रष्टी बंधु ! आयुष्य जल तरंग जैसा नाशवंत है. ऐसा होनेपर भी विषयलुब्ध जन नही जानते कि यह द्रष्टीगोचर होते नष्ट होने वाली विद्यत की तरह मार्ग
का अवलोकन करने वाली गत्वर आयुष्य नाशवंत है, इसी तरह शरीर मांस विष्टा लोही · मलमूत्र हाड और त्वचासे बना हुवा पीजर ! है,इस पीजर को वाह्याडंबर से शृंगारना यह तो अस्थिर शंगार है, और इन बाह्य शंगारों स सिद्धी यह प्राप्त होना असंभवित है. तो इन शंगार के साथ साथ आप को मोक्ष की इच्छा है तो, जैसे घर मकान महल को काच फानुस आदि नाना भांतिकी रोशन से अलंकृत किया जता है, इसी तरह शरीर रुपी महलमें संतोष रुपी फानुस लगाकर धर्म रुपी शोभाप्रद झाड लटका कर, ज्ञान रुपी इलेक्ट्रीक लाइट ( बिजलीकी रोशनी ) से हृदय तट पर उजियारा करके अपने सिद्धी यह को प्राप्त करो. और हे वीरनरो? भवो भव रुपी स्वयंभूरमण में पर्यटन कराने वाले राग द्वेष रुपी तस्करों के साथ- क्षमा शीयल, संतोष, दान, तप, निष्कपटता, मृदुता-और सरलता रुपी शस्त्र धारण करके आत्मसुखघातिक दुश्मनों का संहार करने में तत्पर होजाओ क्यों कि राग मोह यह सद्गतिमें जाने वाले के लिये लोह की सांकल तुल्य है कि जिस से बंधे पीछे छुटना अशक्य होजाता है. और द्वेष नरकोवास में निवास कराने को दूत रुप है, मोह अंसार रुपी समुद्र की धुसरीमें परिभ्रमण कराने की प्रतिज्ञा रुप है, कषाय अग्नि की तरह अपने आश्रित रुपी सुकृत्य को दहन करता है, और क्रोध मान माया व लोभ के लिये तो कहांतक कथन करे, वाचकवृंद को जिज्ञासा हो तो अन्य शास्त्रोके अवलोकनसे ज्ञात कर लेवे.
हे मोक्षार्थी आत्मा अक्षय सुखकी इच्छा हो तो अविनाशी उपाय रूपशस्त्रोंसे निरंतर युद्ध करके वैरियोंका पराजय करना और सत्य शरणभूत धर्मके स्वाधीन