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जैन कॉन्फरन्स हॅड.
[ उक्तपत्रका हिंदी में अनुवाद ] मैं आपके चार तारीखके कृपापत्रका और मुनि श्री आत्मारामजीके संपूर्ण उत्तरोंका बहूत ही कृतज्ञ हूं: मुनिजीने मेरे प्रश्नोंके उत्तर इतनी जलदी और विस्तारपूर्वक देनेमें जो परिश्रम उठाया है उसका धन्यवाद कृपया उनसे निवेदन करें. और मुनिजीकी बाबत मैं अग्रिम.. ..में निवेदन करूंगा. और मुनिजीकी कृपा का धन्यवाद सर्व साधारण में प्रगट करूंगा उक्त महाशय ( मी. हॉरनल साहिब) ही “उपासक दशांग " नामक जैन पुस्तकके उपोद्घातमें लिखते हैं कि - In a third Appendix ( No 1II ) I have put together some additional in formation, that I have been able to gather since publishing the sev eral fascicali. For some of this information I am indebeted to Muni Maharaj Atmaramji Anandvijyaji the well known and highly respected Sadhu of the Jain Comminity throughout India, and author of ( among others ) two very useful works in Hindi. The Jain Tatvdarsha mentioned in note 276 and the Agnana Timira Bhaskar. I was placed in communication with him through the kindness of Mr. Maganlal Dalpatram. My only regret is that I had not the advantage of his invaluable assistance from the beginning of my work. कई प्रकारकी सूचनायें जो मैं कई हिस्सोंके छपने के समयसे जमा कर शका हूं तीसरी परिशिष्टमें मैनें संकलित ( दर्ज ) की हैं. इनमें से कितनीक सूचनाओंके लिये मैं मुनि महाराज श्री आत्मारामजी - आनंदविजयका आभारी हूं ! जो हिंदुस्तानभर में जैन समुदायके विख्यात और परम पूजनीय साधु हैं! और जो अन्य पुस्तकोंके अतिरिक्त हिंदुस्तानी भाषाकी दो बहुत उपयोगी पुस्तकों - जैनतस्वादर्श ( जिसका वर्णन २७६ के नोटमें है. ) और अज्ञानतिमिर भास्करके कर्त्ता हैं. इनसे पत्र व्यवहार मिस्टर - मगनलाल दलपतरामकी कृपासे हुआथा. मुझे शोक केवल इतनाही हैं कि, मैं उनकी अमूल्य सहायताका लाभ अपनी रचनाके प्रारंभसेही नहीं उठा सका !
ध.
यह महाशय संस्कृतके भी योग्य विद्वान् हैं. इन्होंने इसी पुस्तक के टाइटल पेज पर आपके विषयमें संस्कृतमें जो श्लोक लिखे हैं वह क्रमशः नीचे प्रकाशित किये जाते हैं. -
दुराग्रहध्वान्तविभेदभानो ! हितोपदेशामृतसिन्धु चित्त ! |
सन्देहसन्दोहनिरासकारिन् ! जिनोक्त धर्मस्य धुरंधरो सि ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरभास्कर- मज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् ।
आर्हत्ततत्त्वादर्श ग्रन्थमपरमपि भवानकृत् ॥ २ ॥