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"जैनाचार्य-श्रीमद्विजयानंद सूरि."
सके अनंतर वहांसे गमनकर मार्गके श्रमको सहन करते हुए आप फिर पंजाबमें पधारे. पंजाब प्रांतमें आपने स्थान २ में शहर २ में नगरमें फिरकर बड़े उच्च स्वरसे जैन धर्मको ढंडोरा देकर इसकी विजयपताकाको स्थिर किया. पाठकोंको यह बात अवश्य ध्यानसें रहे कि, आपकी इस धर्मयात्रामें मतांतरीय विद्वानोंसे शास्त्रार्थ करनेका भी सौभाग्य आपको बहुतसे स्थानोंमें प्राप्त हुआ था ! लेखवृद्धिके भयसे उन सबका उल्लेख न करता हुआ केवल इतना कहनाही संतोषकर मानताहूं कि, यदि आप थोडा समय और इस धरातलपर रहते तो, संभव था कि, पंडित घनपाल, शोभनमुनि, हरिभद्रसूरि आदिकी तरह बड़े बड़े धुरंधर विद्वान् भी जैन धर्मका ढंडोरा देते!
पंजाब देशमें आज जितनी सख्यामें जैन मंदिर दृष्टिगोचर हो रहे हैं यह सब आपके ही उपदेशका फल है. एवं लुप्तप्रायः जैन धर्मको फिरसे उत्तेजित कर पंजाब देशसे विदा हो अन्यान्य देशोंमें धर्मोपदेश देते हुए आप विक्रमाब्द १९४३ में पुनः सिद्धाचल (पालीताना ) में आए. बहुतसे मनुष्योंकी प्रार्थनासे चतुर्मास आपने यहांहि किया. चतुर्मासकी समाप्तिपर तीर्थयात्रा और आपके अमूल्य दर्शन करनेके लियेगुजरात, काठियावाड, कच्छ, मारवाड, मेवाड, मालवा, मध्यप्रांत, दक्षिण, पूर्व
और पंजाब प्रभृति सर्व देशोंके मुख्य मुख्य शहरोंसे अनुमान तीस पयतीस हजार स्त्रीमनुष्य आये हुए थे.
इस समय आपके शुद्ध चारित्र, अद्भुत प्रतिभा प्रभाव एवं धर्म वीरताका सादर अनुमोदनकर बड़े उत्साह और आनंदसे सबने मिलकर आपको सूरीश्वर अर्थात् जैनाचार्यकी पदवीसे विभूषित किया ! तबसे आप " न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सूरि" इस नामसे सन्मानित होने लगे.
विक्रम संवत् १९४५ के चतुर्मासमें जब आप " मेहसाणा' (गुजरात ) में थे तब कलकत्ताकी रॉयल एसियाटिक सोसायटीके ऑनररी सक्रेटरी डॉक्टर ए. एफ. रुडॉल्फ हॉरनल साहिबने अहमदाबाद निवासी शाह मगनलाल दलपतरामके द्वारा आपको एक पत्र लिखाथा. जिसमें जैनधर्मसंबंधी बहुतसे प्रश्न आपसे पूछे गये. जिन प्रश्नोंका उत्तर आपने बडीही योग्यतासे दिया था. ( वह प्रश्न और उत्तर भावनगरसे प्रकाशित होनेवाले “जैनधर्मप्रकाश"में छप चुके हैं.) प्रश्नोंका उत्तर मिलनेपर उक्त गौरांग महाशयने जो पत्र शाह-मगनलाल दलपतरामके नाम लिखाथा वो उयूं का त्यूं नीचे प्रकाशित किया जाता है.
___Calcutta 14th September 1888. My Dear Sir
I am very much obliged to you for your kind letter of the 4th instant. also to Muni Atmaramji for his very full replies. Please convey to the latter the expression of my thanks for the great trouble he has taken to reply so promptly and so fully to my questions. His answers are very satisfactory; and I shall refer to them in my forthoming......, and express publicly my obligations to the Muni for his kindness.