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॥ नमस्ते परमपूज्याय ॥ “जैनाचार्य-श्रीमद्विजयान्द, सूरि"
आज मैं अपनी लेखनीको सार्थक करने के लिये पाठकोंको उन्नीसवी शताब्दिके स्वर्गीय जैन महर्षिका पवित्र जीवनचरित्र समर्पित करता हूं. यह मेरी प्राथमिक लेखनी है आशा है कि, पाठक महोदय सादर निरीक्षण कर मेरे इस परिश्रमको सफल करेंगे !
आप उन महात्माओंकी श्रेणीमें सादर स्मरणीय हैं जिन्होंने ध्यानावस्थित हो उपनिषदोंकी कठिन समस्यायोंकी विकट ग्रंथिको खोल उनपर अनुपम व्याख्यानोंका उल्लेख कर पवित्र भारत भूमिमें योग बल प्रभावसे आत्मज्ञानकी पियूषधाराको श्रोतःको प्रवाहित . कियाहै ! आप जैनधर्मके महत्त्वका एक केंद्रस्थान थे ! आपका जीवन साधुताका सच्चा आदर्श था ! जैनधर्मानुरागियोंके सिवाय अन्य भद्र पुरुषोंके भी आप श्रध्धास्पद और परम पूजनीय थे ! आपके उच्चभावोंकी घोषणा हिन्दुस्थानके अतिरिक्त विलायतमेंमी गूंज उठीथी ! आपका निर्मल यशःश्रोत भारतवर्षकी पवित्र भूमिमें बडेही आनन्दसे वह रहाहै । जैन शास्त्रों के जैसे आप पारदृश्वा थे वैसेही आप वेद, वेदांग, दर्शनादि शास्त्रोंसे पूर्ण परिचितथे ! आपका उपदेश जैसे सत्य और सारगर्मित था वैसेही आपका चरित्र भी निर्मल और निष्कलंकथा ! परोपकारी महात्माओंकी श्रेणी में आप प्रथम स्मरणीयहैं ! आपके सदुपदेशसे धर्मपतित सहस्रशः स्त्री पुरुषोंका उध्धार हुआ है ! आपकी मधुर वक्तृताके प्रभाव कुछ अनुठाही था ! आपके उपदेशरूप पियूषधाराम जिसे एकदफा भी स्नान करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआहो, उसे अनुभव होगाकि, इस धारामें स्नान करनेसे मनके मलिन भाव किसतरह दूर होजातेथे ! अंतःकरण कैसे नवजात अमंद सुगंधयुक्त पुष्पकी तरह खिल जाताथा ! हृदयकी कुटिलग्रंथि किसतरह खुल जातीथी ! कुटिलता
और नीचताके पर्वत कैसे चूर चूर हो जातेथे ! श्रावण भादोंकी वर्षाके अनंतर वृक्ष, जैसे हरि हरि नवीन कोंपलें धारण किये हुए एक अनोखी मनमोहिनी छटा दिखाई देता हैं, ऐसे ही आपके उपदेशरूप अमृतधारामें स्नानकर श्रोताओंकी आंतरिक दशा-स्वच्छ, कोमल और रसमयी हो जातीथी ! उपदेशामृतसे सेचन कियाहुआ हृदय कमल प्रफुल्लित हो उठताथा ! चित्त भूमिमें शुद्ध भावोंके पौदे उगने बढ़ने और फलने