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________________ १९११] हमारा प्रेम 'प्रेम में जितना महत्व है वह आजकलके नइ रोशनी वाले नहिं समझ सक्ते. 'प्रेम' में जितना गुण है वह आजकलके ऐनकबाज उसका उपयोग नहिं कर सक्ते, और पुरानी लकिरके फ़किर तो ढोलकि पोलमे ही अपनि तान लगा' रहे हैं. मगर आधुनिक 'प्रेम' तो ऐसा हो गया है कि जैसे इखमेसे रस निकाल लिया जाता है और फिर जैसा रसहिन (फिका) छिलका रहजाता है उसहिके मानिंद है । यदि अर्वाचिन सुधारक गण 'प्रेम' का सच्चा महत्व समझने लगें तो आज असंख्य रुपिया सभा सोसायटी एवं उपदेशकों मे खर्च हो रहा है वह नहिं होकर 'ज्ञानदान' जीव दान' आदि अनेक सद्कार्यों में उसका. उपयोग होने लगे. यदि प्रम' का सच्चा गुण समझने लगे तो वकिल बैरिस्टर, कोर्ट आदिमें जो तिर्थस्थानका सहस्रों रुपिया व्यय होकर दुरुपयोग होता है. वह न हो, और ऐसा न होनेसे, भ्रातृभावकि जगह शत्रभाव, “अहिंसाके बदले हिंसा,' सम्पकि जगह कुसम्प, और न्यायके बजाए अन्याय होकर हजारों खराबियां पेदा होती है। यदि प्रेमका महत्व व गुण समझकर प्रत्येक शिक्षित पुरुष स्त्री अपने २ कार्य में प्रवृत हों तो आजही "कुसम्प" महात्माको अपना बिस्तर उठाकर चलदेना पडेगा, और घोर निद्रामें पडी हुइ जैन जातिको 'फुटका' कलंक लग रहा है, सहजमेंही मिट जायगा. यदि कोइ महाशय प्रश्न करें कि क्या जैन जाति अमी निद्रावश है, और है तो फिर कान्फरंस, एसोसियेशन एवम् जैन समितिका जो झन्डा भारतवर्ष में उड़ रहाहै, तो क्या निरा तमाशाही है ? ऐसे महाशयकों ज्ञात रहेकि कान्फरंस, एसोसियेशन एवम् जैन समिति अभी बाल्यावस्थामे है और अपनी कोमल निद्रासे आंखे मलमलाकर उठे जरुर हैं. पर समयपर जो इन बालकोंको इनके माता पिता सुशिक्षा और समार्ग एवम् 'प्रेम' का महत्व नहिं बताएंगें तो इन होनहार बालकोंको ऐसा धक्का लगेगा कि इनके जन्म पर्यन्त सुधरनेकी आशा नहिं रहेगी, और कर्त्तव्य विमुख माता पिताओंको घोर अपराधका भागी होना पडेगा, इतनाहि नहिं बरन् महा अनर्थ हो जायगा, और जो 'अहिंसाका झन्डा' जैन जातिके प्रभावसे खडा है अपने स्थानसे डिगमगाने लगेगा, और जो २
SR No.536507
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1911 Book 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1911
Total Pages412
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size9 MB
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