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જૈન કેન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
[ शुभारी.
॥ श्री॥
हमारा प्रेम. (लेखक झमकलाल रातडिया, प्रतापगढ-मालवा.)
'प्रेम' शब्द छोटासा होनेपरभी ऐसा मनोहर और गंभीर है कि उसकि व्याख्या पूर्ण तौरसे नहिं हो सक्ती, परन्तु इस शब्दका महत्व कैसा है यही सिर्फ बतलानेके लिए पाठकोंको यह एक छोटासा लेख भेट करता हूँ. . .
यह संसार समुद्र ऐसा है कि इस विषयका विचार करने और शुद्ध हृदयसे अपने पूज्य शास्त्रोका पठन करनेसे जो परस्पर के विचार उत्पन्न होते हैं उन सबका सार मात्र एक 'प्रेम' शब्दमें समावेश होता है. अब विचारना यह है कि इस 'शब्द' के बिगेर दूनियाका कार्य चल सक्ता है या नहिं ?
पहले जब इन्सान यानि मनुष्यका जन्म होता है उसही वक्तसे सांसारिक जिम्मेदारियां उस के उपर लागु हो जाती है , जब वह शनैः शनेः उपदेशानुसार एवम् शिक्षानुसार ज्ञानाज्ञानका विचार करता है अथवा अपने नफे नुकसानका जब उसको ज्ञान होजाताहै और ीति अनुसार गृहस्थाश्रमका भार अपने उपर लेता है तब उसको इस 'प्रेम' शब्दका ज्ञान होता है. यानि तब वह 'प्रेम'का महत्व समझता है, यहांपर ध्यान रखना चाहिए कि 'प्रेम' का अर्थ कोई लाम्पट्यताका नहिं है, बल्कि यह एक गहन विषय है.
'प्रेम के बिगेर यह दुनिया एक क्षण मात्र नहिं ठहर सक्ती, आप अपने दिमागके दूसरे विचारों को थोडी देरके लिए अलग रख दिजिए. और मात्र एक 'प्रेम' शब्दको अपने मगजमें स्थान दिजिए-अव्वल 'प्रेम' बिगेर संसारक उत्पतिही नहिं है. दूसरा 'प्रेम' बिगेर क्षण भरभी यह संसार नहिं चल सक्ता (प्रेम मात्र मनुष्यमेंही है ऐसा नहिं परन्तु जितने जीव है उन सबमें समझना वाहिए) क्योंकि जब पुरुष और स्त्री एवम् नर व नारीमें जहांतक 'प्रेम' न हो गर्भ नहिं ठहर सक्ता, और जब गर्भोत्पति हूइ तो 'प्रेम' बिगेर उसका रक्षण नहिं हो सकता, और जब रक्षण हूवा तो 'प्रेम' बिना उसका पोषण नहिं हो सकता, इसही तरह जन्मसे लगाकर मरण पर्यन्त ‘प्रस्पर प्रेम' बिगेर क्षणभरभी कोई कार्य नहिं हो सक्ता.