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________________ १९११] निवेदन पत्रिका [ १०५ ॥ श्री जिनायनमः ॥ ॥ निवेदन पत्रिका ॥ ॥ मङ्गलाचरण॥ “ओंकार उदार अगम्य अपार संसारमें सार पदारथ नामी "सिद्धि समृद्धि सरूप अनूप भयो सबही सिर भूपसु धामी । " मन्त्रमें यन्त्रमें ग्रन्थके पन्थमें जांकुं कियो धुर अन्तर जामी "पञ्चहि ईष्ट बसै परमिष्ट सदा ध्रमसी करै ताहि सलामी ॥ दोहा. दीन दीन आपण देशने, लावो बढ पण मांय । कुला चार कुल रीतसुं, करो प्रमु मन लाय ॥ प्रिय सज्जन महाशयों, अपनी स्थिति, भूत वर्तम न समयकों मीलान कर देखो कैसा अन्तर है ॥ तन मन धन ये तीनो बल पुर्व समय कैसा। वर्तमान में कैसा। प्रिय बन्धुओं ब्रह्मचर्यका पालन व वैद्यक के नियम न पालने सें तन बल नष्ट हुआ। ईल्म न होनेसें मन। और ईर्षा द्वेशसें धन बल क्षयकों प्राप्त हुआ ईन बातोका अनुभव सर्वको हुआ । परोपकारणी मातेश्वरी संसारीक पक्षाकें वृद्धिके लीये निमीत लीखीका एतकात चाति है वो निवेदन हैं। ॥ प्रथम विद्या॥ ॥ श्लोक ॥ ॥ न चौर हार्य न च राज हार्य न भातृ भाजं न च भार कारी। । व्यये कृते वरधत एव नित्यं विद्या धनं सर्व धन प्रधानम् ॥
SR No.536507
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1911 Book 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1911
Total Pages412
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size9 MB
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