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________________ १०) જેન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ, (अपक्ष स पुस्तक की तर्फथा. मैंने कुछ भी तवज्जे नहीं दीया और फिरसें पुस्तक पढना शुरु रांदिया. दो चार मिनिटोंमें फिर भी आवाज आया, मैंने सोचा “ वह कौन आवाज देता है? सायद दीपक तो न बोलता होः " खेर पुन: मैंने पढना शुरू कर दिया. अवी में एक जोर का आवाज आया कि " किंवाड खोली वरना तोड दिये जावेंगे" तब में बोला. “टेरो सोलता हूं." __ जब कि मैंने दरवाजा खोला तो मैं क्या देखता हुं कि, चार यौवनवति अतिरूपवान बीयां एकदमसें उस महलमें घुसकरके टेबल के पास जाकर खडी होगई. और मुझे हाथके शारेसे अपने पास बुलाने लगो. सज्जनो, जब मैं उनके पास गया तो मुझे मआलुम हुवा की, नोंने बाल २ मोतीसारे हुवे और सोला श्रृंगार पहीने हुये थे. तदपि उनके चहरे पर दासी नजर आती थी. पश्चात् मैंने पुछा " हे माताओ! आप कौन हैं? यहां क्यों आइ हो? तथा ऐसी रूपन होते हुवेभी जो अपने चहरे पर शोकके चिन्ह धारण कर रही हो. इसका क्या कारण है?" स परसें वह सर्व माताएं एक दमसे बोल उठी " हे भाइ! हम बड़ी दुःखी हो रही हैं क्षाकर २ " ऐसे रौद्र वचन सुन मैर रोम २ कांप गये; परंतु मैंन विचारा कि, इस बख्त धैर्य ा अवलम्बन करना ठीक होगा. पश्चात् मैं कर जोडकर सविनय बोला, " है माताओ! आप बराइयेगा नहीं. और प्रथम आप अपने प्रथक् २ नाम वत वें " उन चारों में ने प्रथमने मंत्री, दैतीयने प्रमोद, तृतीयने कारूण्य, और चतुर्थने आपना नाम मध्यस्थ बताया उनके कहने पर से मुझे निश्चय होगया कि जिन चार भावनाओंका वर्णन हमारे जैन शास्त्र में किया गया है. येही मैरी मातारां स्त्री रू । हे कर मेरे सन्मुख खडी हैं. तब मैंने प्रथम स्त्रासें पुछा, “ हे मैत्री माता! तुझमें इतना क्या दुःख आन पडा है तो कृपया मुझे सविस्तर मुनादे." वह माता बोलो, “ मुझ दुःखिणीका दुःख अपार है. आज कल मैं बडी दुर्बल होती जाती हूं. देख तो? जैनशास्त्रों के अंदर मेरा वर्णन बडे विस्तारसें किया गया है. उन्ही शास्त्रोंको मानने वाले आज मुझे मान तक नहीं देते. अर्थात् जहां देखा जाता है वहां मित्रता 5 बजाय कुसंपही कुसंप नजर आता है. भाइ भाइ के, पिता पुत्र के, सासु बहुके, और पति नी आदिके आपसमें ऐसे झगडे चलते हैं कि, जिनका वर्णन मैं अपने मुखसे नहीं कर क्ती हुँ. हे वत्त. जहां तक आपसमें संप नहीं होगः वहां तक जैनजातिका उदय होना डा कठिन है. अपूर्ण.
SR No.536506
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1910
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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