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________________ ... जैन कॉन्फरन्स हेरील्ड. . [ फेबरवरी हुवा है यह अपनी महिमा दिखलाये बगैर नही रह शकता है. केवल ज्ञान बंद हो गया पीछे छद्मस्त महात्मावोंको संशय उत्पन्न होने लगे उनका समाधान करनेवाला नजर नहीं आया, जब स्वकपोल कल्पित अर्थ लगाकर, अपना मतलब सिद्ध किया. श्रीमहावीर स्वामीके ६०९ वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम सम्वत १३९ में उस एक जैन समाजके २ टुकडे हुवे और उस वक्तसे श्वेताम्बर और दिगाम्बर २ फिरके अल्हदा अल्हदा नजर आने लगे. पानीका स्वभाव है कि जरा छिद्रः पानेसे पहाड क्यों नहो तोड डालता है. इसही तरह जब किसी बातपर भ्रान्ती पड कर रायका इखातेलाफ हो जाता हैं तो आयंदा उसका फरक जियादाही बढता जाता है, अगर भाग्यही अच्छा हो तो टूटे हुवे के संधि लग सकति है. श्वेताम्बर और दिगाम्बर सम्प्रदाय वालोंमें कुछ मोरूसी विरासतके तकासमें का कोई झगडा नही है क्यों कि यद्यपि इन दोनों के मूहिसे अल्ला एकही है तो भी जब . कृष्ण सूरीके समय में दिगाम्बर सम्प्रदायके मन्दिरमें श्वेताम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायके मन्दिरमें दिगाम्बरका जाना अपवित्रताका कारण समझने लगे-अगर इसही बातपर . मामला खतम हो जाता तोभी खुशीकी बात थी परन्तु इस अवसर्पिणी काल को तो अपना पूरा जोर दिखलाना था और दोनों फिरकोंके जैनियोंमें परस्पर विवाद होना था इस लिये एक मजबूत पाया झगडेका तीर्थक्षेत्रोकी मालकियत के बाबत खडा किया गया. श्वेताम्बरियोंने अपना कदीमी कबजा छोडना नही चाहा, दिगाम्बरीयोंने अपने पैर जमाने में कमी न रखी-जब जिसका मोका आया गालिब हो वैठा. यहां तककि मन्दिर और कब्जा दर किनार पवित्र मूर्तियोंपर झगडा चलने लगा. सिद्ध क्षेत्रमें हजारों मंदिर श्वेताम्बरीयोंके होते हुवे समयपाकर एक मन्दिर दिगाम्बरियोंकाभी कायम किया गया. गिरनारपर दोनों फिरकों के मंदिर कायम हुवे-जहां बस न चला उसही मन्दिर और मूर्तिको दोनों फिरके मानने लगे. रिषभ देवजी . ( केसरियानाथजी ) के दरशन करनेको दोनों सम्प्रदायवाले जाते है हालांकि इन्तजाम और कज्जा श्वेताम्बरियोंका है इसही तरह श्रीफलोधी पार्श्वनाथ के उत्सवमें मन्दिर, प्रतिमा और इल्तजाम श्वेताम्बरियोंका होने परभी दोनों सम्प्रदाय के मनुष्य शामिल होकर उत्सव करते हैं. जब मक्षीजीकी तरफ नजर डाली जाती है तो हृदय फटता है. दोनों आमनाय वालोंने अपने २ पक्षको पुष्ट करने की गरजसे आपसमें खूब लढाई की राजदरबार में फरयादी हुवे और उस पवित्र प्रतिमा के साथ गुडियोंका खेल मचाया. कितने बड़े अफसोस की बात है कि उसही प्रतिमाके प्रतिदिन नेत्र लगाये जाकर फिर उखाडे जावें. बहतर होता कि कोई एक सम्प्रदाय अपने दावेको छोड़ देती और दूसरी सम्प्रदाय उस प्रतिमाको अपने असूल के मुवाफिक पूजती-परन्तु मानका छाया कब टूट सकताथा-असातना होनेपर भी लढाई कब बंद होसकति थी?
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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