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________________ ॥ ॐनमः सिद्धेभ्यः॥ यः संसारनिरासलाळसमतिर्मुकन्यर्थमुत्तिष्टते, यं तीर्थ कथयति पावनतया येनाऽस्ति नान्यः समः ॥ यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते, स्फूर्तियस्य परावसंति च गुणा यस्मिन्स संघोऽर्च्यतां ॥ . અથઃ—જે સંધ, સંસારના ત્યાગને વિષે ઇચ્છાવાળી છે બુધ્ધિ જેની, એવો છતાં મુકતના સાધનને માટે સાવધાન થાય છે, વળી જે પવિત્રપણાએ કરીને તીર્થરૂપ કહેવાય છે, જેના સમાન બીજો કોઈ નથી, જેને તીર્થકર મહારાજા પણ વ્યાખ્યાનને અવસરે “નમ તિર્થસ” કહી નમસ્કાર કરે છે, જેનાથી સર્જનનું કલ્યાણ થાય છે, જેને ઉત્કૃષ્ટ મહિમા છે, અને જેનામાં (અનેક) ગુણે २९ छे, मेवा धनी, (डे भव्य ७1 ) ५०॥ ४२१. The Sain ( Swetumber) Conference Herald. - Vol. II. ] ___July 1906. [ No. VII. अशुद्ध कुंकुम ( केशर.) ' ( लेखक-पूरणचंद नाहर, बि. एल, अजिमगंज.) जैनभाईयों ! " हैरल्ड ” के गत फेब्रुअरि संख्यामें विलायति भ्रष्ट खांडसंबंधि लेख लिखकर अजमेर निघारी श्रीयुत शोभागमलजी हरकावटने परमोपकार कीया है, परंतु विदेशसे आई हुई और २ वस्तुओंमेभी नानाप्रकारके अशुद्ध अपवित्र द्रव्यका भेल समेल रहताहै कि, जिसके श्रवणमात्रसे अपने सहधर्मीभाईयोंका तो कहनाही क्या ! किन्तु समग्र हिंदुमात्रको उन वस्तुयोंका व्यवहारसे अरुचि और घृणा होजावैगी..सर्व पापका मूल लोभ है. इस लोभके वससे मनुष्य नानाप्रकारके अकृत्य करनेसेभी भय भीत नही होताहै. व्यवसायमें लाभके अर्थ लोग यहांपरभी घृतादिक मूल्यवान द्रव्यमें प्राय: दुसरी अल्प मूल्यको वस्तु भेल करते हैं, सो सर्वेको विदित है, परंतु विदेशियोंमे हिंसादिकका लेशमात्रभी विचार नहि है, वहांपर यहांसेभी अधिक अशुद्ध पदार्थोंका मिश्रण होना क्या आश्चर्य है ? यहां किसी प्रकारका द्वेषभावका आशय नही समझना. कारण उनही लोगोंके प्रामाणिक ग्रंथोंमें अपने व्यवहारिक द्रव्योंमे महाभ्रष्ट अखाद्य पदार्थोंका मिश्रणका विवरण पाठ करके उसको प्रगट करना उचित समझकर · यह लेख लि.
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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