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________________ १९०६ ] जैनी भाइयोंकी सेवा में अम्बर्थना. हेमचंद्र, अकलंक आदि ज्ञानी ध्यानी जैन धर्मके रक्षकों ने मिथ्यात्व के दांतोमेंसे इस पवित्र मोक्ष दायक धर्म को बचायाथा और अब यह विद्याके अभावका माहात्म्य है कि इस निर्दूषण अवाधित चिन्तामणिपर सहस्रों दूषण लगाए जा रहेहैं और हम लोग नीचा शिर किये हुए सुन रहे हैं. न हमारी जुबान में जोरहै न लेखिनीमें. मान्यवरों, भिन्न २ देशवासी भिन्न २ मतावलम्बी भिन्न २ सम्प्रदाय व जातियां अब उन्नतिके मैदानमें कूद पडी हैं, हमाराभी अब सोनेका समय नहीं है, जबतक विद्याके अभावको हम लोग दूर नहीं करेंगे तबतक इस समय की घुडदौड में हम बाजी नहीं ले सक्ते. ____ मुझको यह वार्ता लिखते हुए अत्यन्तही हर्ष होताहै कि श्रीमान सम्वेगीजी महाराज श्री १०८ श्री शिवजीरामजीने विद्याके अभावको दूर करने व जैनवाणीके प्रचार करनेके उद्देश्यसे सम्वत् १९४५ में जयपूर नगरमें एक पाठशाला स्थापित कराईथी. जिसकी उन्नतिको देख कर राज्य जयपुरसे भी हर्ष पूर्वक ५० ) रु. मासिककी सहायता स्वीकृत हुईथी, परन्तु इसके साथमें खेदभी प्रकाश करना पडता है कि विद्यासे हमारी अरुचि होनेके कारण उक्त पाठशालासे इच्छित फलकी प्राप्ति न हुई. णठशालाकी समाल व हमारी जातीय आर्थिक सहायता न होने के कारण राजकीय सहायतामेभी क्षति दृष्टिगोचर हो रही है. यदि अबभी इस और आप भाइयोंके हृदय आकर्षित नहुए तो यह उन्नतिका तरु सर्वदाके लिए शुष्क होजावेगा और हमारे मनोरथ यूंही रह जायेंगे. कतिपय जाति हितैषियोंकी सुसम्मतिसे इस पाठशाला के उद्देश्य व. पठनक्रममें वृद्धि व परीवर्तन किए गए हैं. इस कार्य को शनैः शनैः छात्रशाला सहित राजपूताना जैन सेंट्रेल कालिज बनाना हमारा मन्तव्य व मनोरथ है, और उत्कृष्ट धार्मिक व उपयोगी लौकिक शिक्षा प्रदान करना इसका उद्देश्य निश्चित किया गया है. परन्तु प्यारे भाइयों ! हमारी यह आशा जबही पूर्ण हो सक्तीहै जब आप लोग इसको तन, मन, धन से सहायता प्रदान करें. यह कार्य किसी एक पुरुषका नहीं है, किन्तु समस्त सजातीय बन्धु वर्गका उद्योग व परिश्रम इस का जीवनाश्रम है. बन्धुवर्ग! यदि आपको इस गिरते हुए पवित्रा धर्मको बचाना है तो इस जैनागम पाठशालाको उदार चित्त होके सहायता कीजिए. यदि आपको अपनी प्यारी सन्तानको धार्मिक व लौकिक दो प्रकारकी विद्याओंमें निपुण करना है, तो इस जैनागम पाठशालाके लिए द्रव्यकी थीलयां खोलिए. यदि आपको परम पावनी भवदुःख नाशिनी जिन वाणी माताकी सेवा करनी है तो इस जैनागम पाठशाला पर द्रव्यवष्टी कीजिए. आप लोग व्यवहारिक कार्योंमें, शादियोंमें नुक्तोंमें एक क्षणभर के नामके खातिर लाखोंकी खाक कर देते हैं, परन्तु प्यारो! यदि आपको चिरस्थायी नाम प्राप्त करनाहै तो इस धर्म कार्यके अर्थ भण्डार खोलिए. इसमें दिया
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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