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________________ १२० - जैन कान्फरन्स हरैल्ड. _[ अप्रील ६. अगर रूल नम्बर तीन.की पाबंदी पूरी पूरी हो जावे तो उस हालतमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको इस पाठशालामें तालीम देनेकी आवश्यक्ता नही हैं क्योंकि इस पाठशालामें जैन धर्म की शिक्षा मुख्य रखी गई हैं. ७परीक्षोतीर्ण विद्यार्थियोंमेंसे प्रथम तीन विद्यार्थियोंको पारितोषक देनेके सिवाय एक वाजवी स्कोलरशिप उस छात्रको दीजावे जो वक्त्रतामें प्रवीण हो. हर्षके समाचार. पाठक वर्ग, जयपुर (जो कि वास्तवमें राजपूतानेमें जैनपुर हैं ) में एक पाठशाला वि. सम्वत् १९४५ की आषाढ शुक्ल २ को जयपुरीय श्री संघने श्रीमान् सम्वेगीजी महाराज श्री १०८ श्री शिवजी रामजीके उपदेशानुसार स्थापित की जिसमें उसी समय २५ रु. के • लगभग मासिक चन्दा श्री संघसे होकर उसके खर्चका निर्वाह होने लगा और समयानुसार योग्य रीतिसे पाठशाला उन्नति करने लगी. विदेशीय महाशयोंने इसके यौव्य कोषकी सहायताकी कि जो लगभग २०००, रु. के होगया. वि. सम्बत् १९५३ में स्वर्गवासी श्री जंगमयुगप्रधान बृहत खरतर भट्टारक श्री १०८ श्री जिनमुक्ति सूरिजी महाराज की प्रेरणासे विद्यारसिक जयपुर राज्य के प्रधान मंत्रिवर स्वर्गवासी रावबहादुर बाबू - कान्तिचन्द्र मुकरजी सी. आई. ई. में इस पाठशालाका अवलोकन किया और इसकी उन्नतावस्थासे हर्षित होकर राज्यकीय कोष से ६०, रु. मासिक की सहायता इस पाठशाला को प्रदान की. खेदके साथ प्रगट किया जाता है कि इस सुअवसरको धन्यवाद देते हुए जयपुरीय श्री संघका आन्तरिक विद्यानुराग वा धर्मस्नेह अधिकतर वृद्धिको प्राप्त होना चाहिएथा नकि इसके विपरीत जैसे कि श्री संघकी औरसे उस समय हुवा अर्थात् जयपुरीय श्रीसंघसे जो मासिक सहायता इसपाठशालाको थी वह श्री संघकी ज्ञान और धर्म की और अनभिरुचि प्रगट करती हुई बन्द होगई केवल राजकीय सहायता वा यौव्य कोषके व्याज की आयसे ही इसके खर्चका निर्वाह होनेलगा यद्यपि सुप्रबन्धकर्ताओंके प्रसादसे इसके यौव्य कोषकी वृद्धि हुई किन्तु बिद्या सम्बन्धी उन्नति अवनति के रूपमें परिवर्तन होने लगी जोकि शनैः शनैः इस समयतक ऐसी अवस्था होगई कि राजकीय सहायतामें भी क्षति दृष्टिगोचर होने लगी इस अवनति का मुख्य कारण जयपुरीय श्री संघका अज्ञान निद्रासे मूर्छित होना ही कहा जासक्ता है जातीय सुप्रबन्ध कर्ता व निरीक्षकोंके अभावसे उपयुक्त सम्वेगीजी महाराज कि जिनके उपदेशसे यह पाठशाला स्थापित हुईथी इसकी देखरेख करते रहे. . प्रिय बन्धुगण, सजपूताने की जैन जातिमें इस समय ज्ञानका कितना अभाव है यह लिखने की विशेष आवश्यकता नहीं है सर्व भारत वर्षमें सिद्ध है. ऐसे समयमें राजपुतानामें
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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