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________________ ११८ - जैन कान्फरन्स हरैल्ड. [ अपील उसका असर माना जावे तो लूंकाजी श्रावकनें ढुंढियोंके कोलके मुवाफिक जब "शुद्ध धर्म का प्रचार" किया तो उनपर उस भस्म ग्रहका पूरा पूरा असर था और इसतरह भस्म ग्रह के असरमें जो क्रियां लूंकाजीने की वह कहांतक सच्ची समझी जावे. गरजकि इस कथनमें पूर्वापर विरोध आता हैं कि जिसके साथ इत्तफाक करनेमें जरा विचार होता है. . श्रावकको शास्त्र पढनेका अधिकार नहीं हैं यह सूत्रोंका अध्ययन नहीं कर सकता हे इसका कारण यह हैं कि गृहस्थाश्रममें उसको वह श्रेणी प्राप्त नहीं हो सकती है कि जो त्यागी बैरागी ब्रम्हचारी साधूको प्राप्त होती हैं. इसलिये जैसा सूत्रका ज्ञान साधू मुनिराजको हो सकता हैं वैसाज्ञान श्रावकको हरगिज नहीं हो सकता है. अगर ऐसाही होतातो श्रीमहावीर स्वामी कि जो निश्चय मोक्षको प्राप्त होनेवाले थे क्यों गृहस्थाश्रम को छोडकर मुंड होते अथवा जिन आचार्यों को सताईसवें पाटतक राय सेठ चांदमलजीने क्रिया पात्र बतलाये हैं वह क्यों गृहस्थाश्रम छोडकर साधू होते. साधू होनेका मतलबही केवल धर्म साधनका हैं. पस बँकाजी गृहस्थको साधू के मुकाबलेमें इतना ज्ञान होना असंभवहै कि जिसके सबबसे उसको पद “ शुद्ध धर्म प्रचारक" का दिया जावे. इस बँकाजीकी असलियत यह हैं कि श्री महाबीर खामिसे बावनवें पाटऊपर श्रीरत्नशेखर सूरि हुवे हैं उन्होंने सम्बत १४६३ में दीक्षा ली. १५०२ में सूरि पद प्राप्त किया और १५१७ में स्वर्गस्थ हुवे इनके समयमें अहमदाबादमें दसा श्रीमाल जातका लूका था और वह उपाश्रयमें लहीया अर्थात लिखारी • Seribe ) का काम करताथा. एक समय पुस्तक लिखते हुवे कुछ पानोंकी नकल नहीं की जिसपर पूछनेपर पूछनेवाले से उलटा उलटा लडने लगा. उपाश्रयसें लूकाको इस उलंठपनेसे मारकूट कर निकाल दिया जब वह अमदाबाद से लींबडीमें जाकर वहांके कारभारी दसाश्रीमाल लखमसीका सरण लिया और उसकी सहायतासे अपने मनमाने पत को प्रचलित किया और शुद्ध साधुओंकी और जिन प्रतिमाकी उत्थापन की इसके पीछे श्रीमहावीर स्वामीसे बासढवें पाटपर श्रीविजयसिंहसूरिके समय (१६८९-१७४९ ) में दसा श्रीमाल लवजीने अपनें मूंहपर कपडेकी पाटी बांधकर दुढियां साधु हुवा. इसका यह वेष देखकर श्रावक लोगोंने रहनेवास्ते जगह नहीं दी तो वह साधु एक खंडर मकानमें जा रहा. खंडर मकान को खास करके गुजरात में ढुंढ कहते है उसही कारण इस मतका यह नाम पडा. अगर इसका सविस्तर वृत्तांत देखना हो तो श्रीजैनधर्म प्रकाशसे मालुम होसकता है. प्रसंग पाकर लूंकाजी, लखमसीजी और लवजीका वृत्तांत जैसा कि श्वेताम्बर आमनायकी पुस्तकोंमें लिखा हैं यहांपर दर्ज किया हमने अपनी तरफसे इस वृत्तांत में कुछ न्यूनाधिक नहीं किया न इस वृत्तांत के यहांपर लाने से हमारा किसीपर आक्षेप हैं, हम तो सिर्फ इस तरफं भ्यान खेंचना चाहते है कि जिस लूंकाजीको “ शुद्ध धर्म प्रचारक" कहाजाता है उसके
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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