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________________ "दुढियोंके थकनसे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है. . ११५ इहापर सभा नही है उसके लिये भी उद्योग चलरहा है. यदि सभा होकर विचारांश होता रहे तो हरबातकी न्यूनता निकाली जावे. लोकोंक दिलपर कान्फरन्स के अभिप्राय जमने लगे है. आपका अनुग्रहसे हमारी इच्छा पूर्ण होगी ऐसी आशा है | इस गाममें घर ५५ इंढियेका प्रचार जादा हैं, डिरेक्टरी इहांकरानेका फार्म मंगाया हैं आनेसे शुरू होजावेगी. कईबातों पूर्ण होनेसे लिखूगा. यह बहुत संक्षेपमें प्रदर्शन मात्र किये हैं. मिती चैत्र शुदी १३ संवत १९६३. ____ मुनि महिमाविजयजीके सकल संघको धर्मलाभ वंचना अत्र शास्त्रीजी पनालालजी आये है सो इहांपर पांच रात्री ठेरायेहै सर्व कार्यका बंदोबस्त हो जावेगा. ' ढुंढीयोंके कथनसे मूर्तिपूजा सिद्ध होती है. जैन शास्त्रोंमें कई जगह मूर्तिपूजनका कथन है और द्रोपदी महासतीका पूजा करना साबित है. श्वेताम्बर आम्नायके जैनी अपने प्रभुकी मूर्तिकी पूजा भाव सहित अष्ट द्रव्यसे करते हैं, केसर चन्दन पुष्पादि बहूत उमंगके साथ चढाते हैं उस समय प्रभुके स्वरूपका दिखाव ऐसा मनोरंजन होताहै कि जिसके दरशनोंमें लैलीन होकर मनुष्य अपने जनम को सफल करताहै. यह श्रृंगार चित्तकी चपल वृत्तिको अपने अंदर आकर्षण करनेवाला है और उस समय दरशन करनेवाला संसारके सब व्योहारसे निवृत्ति पाकर केवल उस एक परमात्मा पर ध्यानारूढ हो जाताहै कि जिससे उसका अनुभव स्वच्छ और शुद्ध होकर उसके अशभ कर्मोका नाश होताहै. प्रथम तीर्थकर श्री रिषभदेव स्वामिने अपने पुत्र श्री भर्तचक्रवरतीको संघ निकाल कर श्री सिद्धाचल तीर्थकी यात्राका हुकम दियाहै. तीर्थकरके मोजूद होते हवे जब उनकी प्रतिमा उनके मुवाफिक मानी गई है तो फिर उनके अभावमें तो उनकी प्रतिमा और उनकी वाणीपर ही आधार है. इन दोनोंमेंसे एकको मानना और एकको न मानना कहां तक ठीक है इस का फैसला बुद्धिमान बाचक वृंदके इनसाफपरही छोडते है. श्वेताम्बर सम्वेगी मूर्तिपूजक है ढुंढिया मूर्तिपूजक नहीं है. गोया हिन्दुओंमें जिस तरह दयानंदजीके पंथवाले हैं उसही तरह जैनियोंमें ढुंढिया हैं. इनमेंसे बहूतसे ढुंढियाओंका कथन एसा है कि चर्म तीर्थंकर श्री महावीर स्वामिके थोडे काल पश्चात उनके अनुयाई क्रीयासे भ्रष्ट होकर मूर्ति वगरहको मानने लगे जब इन ढुंढियाओंके परमोपकारी प्रथम धर्मोपदेष्टानें शास्त्रकी शोध खोल करके धर्मको ढूंढा ( तलाश किया ) और उस ढूंढनेका सारांश यह निकला कि मूर्तिपूजाका धर्म विरुद्ध पाया और उसही समयसे यह दो फिरके मूर्तिपूजक और मर्ति उथापकके कायम होगये. सम्वेगी तो ढुंढियाको नया फिरका बतलाते हैं और ढुंढिया
SR No.536502
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1906 Book 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1906
Total Pages494
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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