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________________ १९०५] ‘सर्व जैनी भाइयों से प्रार्थना. ३७३ इस दुर्दशाके कारणोंका विचार करें और एक्यतापूर्वक इन कारणों को दूर करनेका प्रयत्न करें तथा वर्तमान प्रणाली धर्म व जाति का सुधार करें. भाईयो ! हमारे अन्य देशबान्धवों की ओर देखिये वे किस प्रकारसे अपने २ धर्म तथा जातियों की उन्नी लीये प्रयास कर रहे है. किस प्रकारसे वे देशकी नाना जातियों को जातीयताके एक सूत्रसे बांधकर देशमें राष्ट्रता पैदा करनेका प्रयत्न कर रहे हैं. जिस समय देश हितैषियों का ध्यान देशकी एक्यता की और झुका है उस समय यह देखकर हमें बड़ा शोक होता है कि हमारी जैन कोमके दोनों संप्रदाय अथात् दिगंबरी और श्वेतांबरी आपसमें एक्यता करके सुधार नकर. हम देखते हैं कि दोनों संादायों के एकही सिद्धांत है. यदि कुछ अंतर है तो वह कुछ अधिक महत्वका नहीं है भेद केवल व्यवहारका है. हम दोनों उन्हीं चौबीस तिर्थकरोंको पूजते हैं. हमारे प्रधान सिद्धांतभी एकही हैं फिर हम नहीं कह सकत कि क्यों हमें हिल मिलकर न रहना चाहिये ? हम यहभी मानते हैं कि समय पड़नेसे हम री कोमके दो भग हो गयेये आज वह समय नहीं है. यदि मानभी लिया जायकी हमारे सिद्धांतों में कुछ अंतर है, परन्तु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि हमें एक्यतापूर्वक काम न करना चाहिए. इस बामें हो पश्चिमके वैज्ञानिकोसें शिक्षा लेना चाहिये. उनके सिद्धांत प्रथक् होते भी वे एक दूसरेसे प्रेम करते हैं और मनुष्य जातिकी भलाइके लिए हिलमिलकर विज्ञानकी उन्नति करते हैं अतएव हमेंभी हिलमिलकर कार्य करना चाहिए. __हम यह स्वीकार करते हैं कि एक संप्रदायवाले अपने पूर्वजों के समाज पूजाकी प्रणालीकों छोड़ दसरी संप्रदायकी प्रणाली स्वीकार न करना चाहिये, परन्तु हम कहते हैं कि वे चाहे उस प्रकारसे पूजन करें, पर ऐसे कई कार्य क्षेत्र हैं जिनमें दोनों संप्रदायवाले मिलके काम कर सक ते है और जैन जासिकी उन्नति कर सकते हैं. सामाजिक सुधार, लौकिक उन्नति और पश्चिमी विद्वानों के जैनधर्म संबंधी कुविचारों को दूर करना इत्यादि ऐसे कार्य हैं कि जिनसे दिगंबरी तथा श्वेतांबरी दानोंका समान संबंध है और जो केवल दोनों के ऐक्यसेही किए जा सकते हैं. इसी एक्यता और मित्रता उत्पन्न करनेके अभिप्रायसे जैन यंगमेन्स एसोसिएशन कायम की गईभी, परन्तु शोक विषय है कि कई सज्जनोंने उसके उद्देश्यको नहीं समझा अथवा उलटा समझ लिया. इसीसे सर्व साधारणने उसको केवल दीगवरी सभा समझली यह उनकी भूल है. सभाके नियम और उद्देश्योंके देखनेसे आपको जान पड़ेगा न तो यह सभा केवल दिगंबरियों के लिए है और न केवल श्वेतांबरियों के लिए है, परवह समग्र जैनजातिकी भलाई के लिए स्थापित की गई है. गतवर्ष सभाके वार्षिकोत्सव पर ऐक्यताका प्रस्ताव Resolution पास करके, दोनों संप्रदायों के नेताओंसे पत्र व्वयहार करके और अंग्रेजी "जैनगजट के द्वारा दिखा दियागया है कि सभा दोनों संप्रदायों के मिले हुए परिश्रमसेही जातिकी उन्नति करना चाहती है.
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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