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________________ समायान - ३३३ इस पत्र अगस्ट मासके अङ्कके पृष्ट २६७ में खस कूचीकी प्रवृत्तिके विषय में ताम्रियों के तीन भेद इस तरहपर दिखलाये गये है:-१-सम्धेगी अर्थात् मन्दिर मार्गी (तपा), २टुंदिया ( स्थानकवासी), ३-तेरापंथी. इस “तपा" शब्दके ऊपर हमारे मित्र कलकत्ता निवासी हीरालालजी मुकीम, माणकचंदजी चुन्नीलालजी, हीरालालजी दुसाझ महताबचंदजी महमवालने पत्र भेजकर खुलासा चाहा है और यह लिखा है कि ८४ गच्छमें थोडे थोडे सबहीमें मन्दिर मारी हैं कृपा करके अगले. पामें इस बातको शुद्ध करके लिखिएगा. इस लिये हमको इस शब्द "तपा"का समाधान करना उचित हुवा. यह पत्र “हरेल्ड” कोनफरन्सका पत्र ह और हिन्दुस्थानकी कुल प्रान्तों में जाता है इस कारण पृथक २ प्रानोंके श्रावकोंके समझनेमें जो बात जिस शब्दसे आसानीके साथ आजावे वह शब्द अक्सर काममें लाने पड़ते हैं. प्रथम विभागके वास्ते हमने तीन शब्द लिखे है उसके वास्ते एक शब्द मन्दिर मार्गीभी लिख देनी काफी था परन्तु गुजरात, काठियावाडमें मन्दिर मार्गीको “तपा" के नामसे उलखते हैं इसही कारण गुजरात विभागके श्रावकोंके आसानीसे समझनेके वास्ते ब्रैकैटके अंदर शब्द "तपा" दर्ज करदिया, खुद ब्रैकेट इस बातकी सूचना दे रहा है कि यह शब्द खास किसी गरजसे मखसूस किया गया हे इसही तरह दसरे विभागमें ढूंढियाके साथ ब्रैकेटमें जो शब्द " स्थानकबासी” का लिखा गया है उसकाभी यही मतलब है कि राजपूताना, पञ्जाब वगरहमें तो इस फिर्केको देढिया कहते हैं परन्त गुजरात, काठियावाडके ढुंढिया अपने आपको "स्थानकबासी" कहने लगे हैं और उनकी तरफसे इस " स्थानकबासी" शब्दकी अपेक्षासे अक्सरे मन्दिर मार्गीयोंको "देहराबासी" कहा जाता है परन्तु इस शब्द पर पहिले बहस हो चुकी है. अपने साधु मुनिराज मन्दिरमें कभी बास, निवास नहीं करते है. यह बात सब मानते हैं कि प्रभके शाशनमें ८४ गच्छ हैं, और उनमें बहूतसे मन्दिर मार्गी हैं इसमें कोई संदेह नहीं है. हमने शब्द " तपा"को ब्रैकैटमें सिर्फ जो मतलब हमने ऊपर लिखा है उस मतलबसे दर्ज किया है. ___अखीरमें हम अपने उक्त मित्रोंको धन्यवाद देते हैं कि शंका उनके दिलमें उत्पन्न हुई उसको उन्होंने कृपा करके पत्रद्वारा लिखकर उसके समाधानकी इच्छा प्रगट की; इस तरहकी कार्यवाहीसे जो कुछ खयाल अच्छा या बुरा किसी लेख या शब्द या रायके बाबत उत्पन्न होता है उसका समाधान हो जानेसे प्रीतिको बढनेका ही मोका मिलता है. हमारे उक्त मित्रोंकी न्याई हमारे अन्य पाठकोंके दिलमेंभी अगर किसी वक्त कोई शंका उत्पन्न हों तो उसको पत्रद्वारा अवश्य साफ करालिया करे.
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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