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________________ ३२८ - जैन कौनफरन्स हरेल्ड. [ऑकटोबर जाता है कि इस दुनियामें मुसलमान कोम अपनेमें मारफत, तरीकत, इबादत और हिदायत ऐसे चार मंतव्येमें विभिन्न है. और उन चार मंतव्योंके अतिरिक्त कई शाखाओमें मिले हुवे हैं परन्तु वह सबके सब अहले किताब याने दीन महोमदीके अनुयायी मुसलमान गिने जाते हैं. फिर कोईभी मुसलमान-अरब, तुर्क, अफगान, बलूची, ऐफरीकान, मुरके और मेंगोलीयनहो अथवा मुसलमानसे पतित गिनी जाती काफिर कोमके नीचेसे नीचे दरजहमेंसे दीन महोमदी कुबूल करके मुसलमान हुवा हो तो बस वह मनुष्य उनके फिरकेमें दाखिल होगया. न तो कोई उससे घृणा रखता हे न उससे अलग रहते हैं सब एकही दस्तर खुबानपर बैठकर "बिसमिल्ला" बोलकर खाना खाते हैं जिससे जिस वक्त दीन और जेहादका सवाल उत्पन्न होता है तो सबके सब अपनी न्यात जात और ब्रादरीका अभिमान छोडकर "दीन" शब्दके निशानके नीचे अपनी जान देनेको तय्यार हो जाते हैं. इसही तरहसे अपनी जैन कोममें श्वेताम्बर, दिगाम्बर, स्थानकबाशी और तेरापंथी जो चार फिरके अंतर्गत है और उन चार फिरकोंके गच्छ और संघ जुदे जुदे बर्तते हैं फिरमी उन गच्छ और संघोंके अंतर्गत भिन्न भिन्न जातियों अपनेको श्रावक और जैन कोमसे अंकित करते हुवे विद्यमान हैं. ___ अब बिचारना चाहिये कि बंगाली, पंजाबी, गुजराती, मारवाडी, मेवाडी, महाराष्ट्री, कच्छी और सिंधी वगरह कोई कोम है ? और उस कोममें श्रीमाली, पोरवाड, औसवाल, लाडवा श्रीमाल, कच्छी, लींगायत, दशा, बीशा, पांचा और नीमा नाम धारण कररहे हैं. श्वेताम्बर, दिगाम्बर, स्थानकबाशी, तेरापंथी यह चारो फिरके चरम तीर्थंकर श्रीवीर भगवानके शासनको कुबूल करते हैं और केवली भाषित धर्मको स्विकारनेका दावा रखते हैं और ऊपर लिखी हुई सब ज्ञातिको अपनेको जैन कहलानेमें धन्य मानते हैं तथापि एक दूसरेका खानापानी नहीं गृहण करसकते हैं.. बडी आश्चर्यकी बात यह है कि जैनियों में इतना मिथ्यात्व घुस जानेपरभी अपनको स्वामीभाई कहलाते हैं और भाई भाई होतेभी एक दूसरेका खानापानीले पतित होनेका डर रखते हैं तो एक कोम होकर एक धर्मी होकर "जैन" नामके निशानके नीचे खडे रहकर तन, मन, धनसे एकत्रित होकर जैनियोंका और जैन धर्मका उन्नत्ति द्वार किस कुंजी (कूची)से खोला जासकता है इसका विचार करना अवश्य जुरूरी है. अपने अपने आचार्योंके गच्छमें, संघमें या स्थानकमें रहते हुवेभी परस्परकी ईध्या, बैर, राग, द्वेष और मिथ्या अभिनिवेश छोडकर जैन धर्मके वेता लोग जैन कोमकी टुकडा टुकडा होगइ हुई रस्सीको जोडकर एक भारी रस्सा बना कर अवनतिमें जाती हुई धर्म लक्ष्मीको जकडकर बांवगे तबही जैनियोंका और जैन धर्मका रक्षण होगा. अगर उक्त विषयमें पूरी चर्चासे विमुख रहकर अंव परंपरा चलाई जावेगी तो महान तत्त्व ज्ञानीओंका अविश्रांत परिश्रमसे स्थापित किया हुवा यह शासन छिन्न भिन्न दशाको प्राप्त होजावेगा उसमें कुछ आश्चर्य नही है-अलमति विस्तरेण विपश्विद वरेषु किमधिकम्,
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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