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________________ १९०५ ] जैनियोंका प्रथम कर्त्तव्य क्या है ? ३२.७ आबाल वृद्ध जैनबन्धु हैं वह सबके सब एक दिल होकर मन, बचन, कायासे उद्योगित नहीं होंगे वहांतक कोनफरन्ससे अपने निश्चय किये हुवे केंद्रस्थानपर नहीं पहुंचा जायेगा. पूर्वाचार्य प्रणित धर्म कथानुयोग द्वार देखनेसे मालूम होता है कि जिस प्रकारसे वर्तमान समयमें जैनियोंमें ज्ञाति ज्ञातिका भिन्नभाव और भिन्न वर्तन देखने में आता है वैसा पूर्वकालमें नहीं था. जहांतक बिचार किया जाता है तो मालूम होता है कि जिस मनुष्यनें धर्म देशना सुनकर मिथ्यात्वरूप अन्धकारसे निकलना चाहा और श्रावक व्रत अंगीकार कीया उसही वक्त वह जैनधर्म याने श्रावक हमारे स्वामी भाईयों में गिना गया चाहो वह किसी कोम और वर्णका क्यों न हो. प्रवचन सारोद्वारादि पढनेसे और बर्तमान यति मंडल और मुनि मंडलकी चर्या देखनसे जाना जाता है कि जो श्रावक धर्मानुसार आमनामें रहता है उसका अहार पानी निर्दोष होने से साधू लोग बहरते हैं. इसही तरहसे अगले वक्त में सब जैनी लोक आपस आपसमें खानपानाकाव्योहार रखतेथे परन्तु दुरदैवसे मिथ्यावियोंका संसर्ग जियादा होनेसे (जोकि जैनियो से किसी प्रकार उत्तम नहीं हैं ) उनको उत्तम कोम मानकर अपने आपको उत्तम होने पर भी उनसे नीच मानने लग गये. फलीतार्थ यह आया कि जो लोक भक्षाभक्षका बिचार नहीं करसकते और हिंसादि आरंभ के कार्योकी पुष्टि करके अधर्ममें प्रवृत्त होरहे हैं उनका खानापानी उनसे दूर बैठकर खुशीसे खाते हैं और वह लोक जैनियोंका पानी पीनेमेंभी पतित हुवे मानते है. एक तरफ मिथ्यालियोंका अट्टहास प्रवर्तरास और तीर्थ प्रतादिकी मिथ्या प्रशंसा देखकर विश्य बासना उक्त धर्मसे अज्ञान जीवोंकी बेस्यावत् आकर्षण कर रही है और दूसरी तरफ जैन समुदाय में भिन्न भिन्न आचार्योंकी मिथ्या अभिनिवेशरूप अंधेरी रात्री में शून्य हृदय मनुष्यों सन्मार्गकी आकांक्षानें भ्रमित हो रहे है. परंतु जैसे समुद्र मार्ग दृष्टिगोचर नहोतेभी धक्के तारेके निशान से दिशा बान्धकर नाविक बांछित स्थानपर लेजाता है इसही तरह इस मोहार्णवसे बांछित नगरको जाने में पूर्वाचार्य परूपित और केवली भाषित सिद्धांतरूप ध्रुवके तारेके निशानसे जैन श्वेताम्बर कोनफरन्स रूप नौकाको उनके महानुभाव नाविको अपनी कार्यवाहीसे पहुंचायेंगे.. हम उपरसे प्रस्ताव करते आये हैं कि जैनी लोक खुद उत्तम होते हुवेभी अधमत्व स्विकार कर बैठे हैं और अपने स्वामीभाई कि जो जैन धर्मका चरण करणानुयोगमें कटीबद्ध होकर सदा सर्वदा धर्म ध्यानमें प्रवर्तते हैं उनका पानीभी नही पीते यह कितनी शोककी बात है ? हमारे मुम्बई इलाके जैन श्वेताम्बर कोनफरन्सके दो महोत्सव बडी धूमधाम से हुवे और बडे बडे विद्वान और ग्रेज्यूएटोनें हरेक विषय ऊपर अपनी वक्तृत्व शक्तिका परिचय देकर श्रोताजनोंके करतल ध्वनिका हर्षामृतपान किया परन्तु " मूलम् नास्ति कुतो शाखा' 22 इस न्यायवत् हां ऐक्ताका अभाव दीखता है वहांपर इच्छित फलकी संभावना बहुत कम रहती है. किसी भी विषयका प्रतिपादन या स्थापन करनेमें पहिले आलंबनकी अपेक्षा होती है स न्यायवत् अपने को अपने से अलग एक कोमका उदाहरण लेना जरूरी है. दृष्टांत दिया
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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