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________________ २६८ जैन कोनफरन्स होल्ड, [ऑगष्ट भी नूतन प्रतिमा की प्रतिष्टा कराते जाते हैं. गरज कि मन्दिर और प्रतिमायें इस कदर बढ गई हैं कि जिनकी सार संभाल जैसी कि चाहिये श्रावक लोग करनेमें असक्त हैं. इसका परिणाम यह होता है कि हमारे प्राणोसे अति बल्लभ जो हमारे प्रमेश्वरकी प्रतिमा है उनको अश्रद्धालू अन्यमति नोकरोंके हाथमें दी जाती हैं. जिस मणीको हम अमुल्य समझकर गुप्त रखना चाहते हैं उसहीको हमारी गफलत और सुस्तीसे हम कुबुद्वियों के हाथमें दे देते हैं उसका जो नतीजा हो वह पाठक खुद खयाल कर सकते हैं. प्रतिमावोंकी सेवा पूना अन्य मतियों के हाथमें सोंपने पर भी तुरी यह है कि एक २ नोकरके हाथमें कई प्रतिमाओं की पूजा दी जाती है. यह लोग जो पेटके खातर पूजाका धंधा करते हैं यथा विवि पूजा नही कर सकते हैं न करनेकी अभिलाषा रखते हैं किन्तु हर जगह भारी असातना करते हुवे देखनेमें आते हैं. इन लोगोंका मामली नियम पूजाका यह है कि न तो यह लोग पहिले कळससे जल चढाते हैं न जल अंग लहणासे केसर चन्दन साफ करते हैं किन्तु एक चरी में पानी लेकर अपने पास खसकंची लेते है और इस खसकूचीके उसचरीके पानीकी सहायताले पर्मेश्वरकी प्रतिमापर इस निर्दयताके साथ घस्से लगाते हैं कि निनको देखनेसे रोम रोम खडा होजाता है. सुवर्णकार भी शायद किसी गृहणेको उज्वल करनेके लिये उस गृहणेके बालकूचीके इतने जोरसे घम्से नहीं लगाता होगा कि जितने घस्से यह विवेक रहित पुजारी पर्मेश्वरकी प्रतिमा के लगाते हैं. इस तरहके हर हमेशके घर्षणका परिणाम यह निकलता है कि कई जगहले प्रतिमानी विस जाती हैं, जो पावटी पर चिन्ह, प्रतिष्टाके लेख वगरह होते हैं वह बिलकुल उड जाते हैं. जो चहरे महोरेकी बनावट बारीक होती है उसमें व्यंग पड़ जाता है. इन सबके ऊपर जो असा ना होती है उसका हिसाब तो ज्ञानी महाराजही जाने. ___ च्यूंकि कोनफरन्सका उद्देश्य जीर्णोद्वारका है और इस तरहकी खसकुंचीकी कार्यवाहीले नूतन प्रतिमा जीर्ण हो जाती है इस लिये इस विषय पर समस्त श्री संवको पूरा विचार करके प्रबन्ध करनेकी आवश्यक्ता है. अगर पूजा करनेके समय केशर चन्दन विवेकके साथ लगाया जाये तो शायदही खसकुंचीको काम लानेका मोका मिले. इसही तरह जब सोना चादीके वरक जेवर'' की अंग रचना होती है उस वक्त अपने सूक्ष्म लालचके सबबसे पुजारी सेवक वगरह जिस निर्दयतासे उस अंग रचनाको प्रभूकी प्रतिमापरसे पक्षालके समय उतारते हैं वहभी , काविल इन्तजामके है. ... हम आशा करते हैं कि हमारे विद्वान बुद्धिवान मुनिमहाराज तथा श्रावक वर्ग इस बातकी तरफ पूरा लक्ष्य देकर शास्त्रोका अवलोकन करके निर्णय करेंगे कि पूजा विधिमें इस खसकुंची का क्या लेख है। इसका इसतेमाल किस तरह पर दिखलाया गया है। अगर इसका इसतेमाल
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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