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खसी प्रवृती.
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मददके वास्ते जियादा रूप्पया खर्चा जाये और पाठशालावोंमें पढानेका अमौसीके मुवाफिक एक खास " सीरीझ " इनाम देकर तय्यार कराया जावे.
हम आशा करते हैं कि इस मंडलके प्रबन्ध कर्ता हमारी सूचनाओं पर ध्यान देकर सुधारा वधारा करेंगे.
खसकूंचीको प्रवृती.
इस अंक में " वालाची " के हैडिंगसे पोरबन्दर निवासी डाकटर शाहका भेजा हुवा विषय प्रगट हुवा है. गुजरात, काठीयावाडमें जिसको वालाकूची कहते हैं उसको मारवाडमें खसकूंची कहते हैं और यहही नाम ठीक मालूम होता है क्यों कि यह कूंची खसकी बनती है. मारवाड देशके पाली शहरमें यह खसकूंचीयां तय्यार होती हैं. परमेश्वरके प्रतिमा की पूजा करते हुवे प्रथम जल चढाकर जो केसर चन्दनादि लेष अंग रचना वगरह होती है उसको जल अंग लूह के साथ उतारा जाता है परन्तु कई स्थानोंमें केसर चन्दनका लेप लगा रह जाता है तो उसको इस खसकूंचीले साफ किया जाता है. यह नहीं कहा जा सकता है कि इस
खस कूंचीका रिवाज प्राचीन समयसे चला आता है या नूतन है परन्तु इस समय सब जगह यहही रीति देखने में आती है. किसीभी समय किसी भी कारण से इस खसकूंचीका इसतेमाल शुरू किया गया हो परन्तु इस समय उसका अछा परिणाम नजर नहीं आता है. डाक्टर शा अपने आर्टिकिलमें जो दलीलें दी हैं वह काविल गोर हैं और इस विषय पर खास तौर पर चर्चा चलाकर किसी खास निर्णय पर आना उचित है.
जैन धर्मानुयायी अव्वल तो संख्या में पहिलेही कम थे और अब दिन बदिन कम होते जाते हैं. उनमें भी दो मोटे विभाग श्वेताम्बर और दिगाम्बर जैनियोंके हो गये हैं. श्वेताम्बरियोंमें तीन भेद हैं: – १. सम्वेगी अर्थात् मन्दिर मार्गी ( तपा ) २. ढुंढिया ( स्थानकवासी ) ३. तेरापंथी. पिछले दो भेदकी आमनावाले मन्दिरको नहीं मानते हैं सिर्फ सम्वेगी मन्दिरको ● मानकर जिनेश्वर देवकी पूजा करते हैं. इनमें शुद्ध श्रद्धावाले और आलशको छोड़कर प्रभुकी पूजा करनेवाले बहूत ही कम नजर आते हैं. हमारे धनाढ्य बुजुर्गूनें हमारे वास्ते लाखों करोड़ों रुपयों की लागत के अपूर्व हजारों मन्दिर छोडे हैं कि जिनमें लाखों प्रतिमा मोजूद हैं. इनमेंसे कई मन्दिरोंकी व्यवस्था जीर्ण हो गई है और कई मन्दिरोंमें सेवा पूजाका प्रबन्ध जैसा कि चाहिये नजर नहीं आता है. इस हालत पर भी अभिमानी महाशय सिर्फ नाम कीर्तिके वास्ते नये नये मन्दिर बनवाते चले जा रहे हैं और प्राचीन प्रतिमा के पूजाका इन्तजाम न होते हुवे