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________________ २३७ १९०५] बिनारस जैन संस्कृत पाठशाळा. मुल्कमें गये और वहांपर गुरु महाराजकी आज्ञानुसार दोनों शिष्य वेषांतर करके रहे और बौद्ध धर्माचार्योंसे उनके धर्मका ज्ञान प्राप्त किया और इस खबरदारी और हुशयारीके साथ रहे कि बौद्धोंको अपने जैनि होनेका हाल मालूम नहीं होने दिया. कालांतरमें कई कारणों से बौद्ध धर्माचार्योंको खयाल हुवाकि यह दोनों विद्यार्थी जैनी हैं इस लिये उनकी परीक्षा करनेके वास्ते धर्मशालाके नालके पगतियापर जैन श्वेताम्बर प्रतिमाका चित्र लिखा. अन्य विद्यार्थी तो उस चित्रको उलांघकर चले गये परन्तु इन दोनों जैन मुनियोंने उस चित्रपर बद्ध मुनिकी तीन रेखा करके फिर उसको उलांघकर चले गये और यह विचार करके कि इस परिक्षाम किसी प्रकारका प्रपंच है वहांसे अपने गुरुके वास्ते रवाना हो गये. इस खबरके मिलनेपर उस मुल्कके बौद्ध राजाकी सेना उन दोनोंपर चढी और उनमेंसे एक हंसको तो रसतेमेंही मारडाला, दूसरा परमहंस बचकर चीतोडतक पहुंचा और अपने गुरुको अपनी प्राप्तकीई हुई पुस्तकें समर्पण करके खुद एक स्थानकमें जाकर सोगया वहांपर बौद्धोंकी सेना पहूचकर उसकोभी मारडाला. श्रीहरीभद्र सूरीजीको यह बात मालूम होनेपर उन्होंने आकर्षक शक्तिसे बौद्धोके सैनिकोंको आकर्ष करके चूलेपर कढा चढाकर उनको होम डालनेका प्रपंच किया यह बात उनके गुरू महाराजको मालूम होनेपर उन्होंने दो साधुओंको उनके पास भेजा वि जिन्होंने गाथा बोलकर उपदेश किया कि जिससे श्रीहरीभद्रजीका क्रोध शम होगया. . इस वृत्तांतसे मालूम हो सकताहै कि हमारे महान् पूर्वाचार्यों और मुनियोंने अपने प्राण नष्ट होन तकभी ज्ञानकी प्राप्तिके वास्ते क्या क्या उद्यम किये हैं. कष्ट बलके महाकर्ट के साथ खुदने ज्ञानकी प्राप्ति करके हमारे वास्ते किस कदर अमूल्य विरासत छोड़ी है हम उनके उप कारका अंश मात्रभी बदला नही दे सकते है. महात्मा हंस और परमहंस का साही कष्ट सहन करके अपने परमपूज्य विख्यात महामहोपाध्याय न्यायविशारद बाचक श्रीयशोविजयजी वेषान्तर करके बनारसमें रहकर वहांके. विद्वान् पंडितोंसे सम्पूर्ण शाम' हासल किया. औ अपने अपूर्व ज्ञान बलके आठ बडी बङी सभायें जीतकर जैनका डंका बजाया. महा पंडित होनेके कारण कई विद्वान् विप्रोंने इस महात्माको अपनी २ कन्या अर्पण करनेकी प्रार्थन की परन्तु कामदेवके बाणसे युद्ध करनेमें प्रबल होकर पौद्गलिक सुखकी- अभिः लाषा न करके इस त्यागी बैरागी महात्मानें इन सब बातोंको छोडकर जैन धर्मकों अच्छ| तरहपर दिपाया. ......समयके फेरफारसे इन दिनोंमें जैन धर्मके शिक्षणका प्रबन्ध क तोरपर न होने से अक्सर मनिराजोंको पवन पाठन बहूत कष्ट सहनकर करना पड़ताथा और फिरभी उनका श्र साफल्य नहीं होता था. पंडितोंको मुंह मांगी तनखुट्टा देनेपरी जैन शैलीके जानने . विद्वान् मुशकिलसे मिलतेथे. इस कमीको पूरा करनेकी गरजसे 'मुनिश्री धर्म विज/
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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