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________________ २३५ १९०५) बिनारस जैन संस्कृत पाठशाळा. श्रीमद्यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला-बनारस. मनुष्य चेतन और जडके संयोगसे इस असार संसारमें क्षणिक देह धारण किये हुवे चिकनाचुपडा रातामाता फिरता है परन्तु विकराल कालके माथेपर घूमनेका कि जो जब चावे लात मारकर प्राणरहित कर सकता है हजारोंमें गिणेगांठे मनुष्योंहीको खयाल होता होगा. इसही कारण इस समयमें पौद्गलिक शरीरको पुष्ट करनेवाले जीव जियादा देखनेमें आते हैं और आत्माके सुखको चाहनेवाले बहुत कम नजर आते हैं. हिंदुस्थान एक ऐसा स्थान है कि जिसमें पौद्गलिक सुखको छोडकर जीव अपनी आत्माका कल्याण करना चावे तो उनको उसहीके मुवाफिक सब सामग्रियां मिल सकती हैं और इसही सबबसे इस मुल्कमें अनादि कालसे दयामय जैन धर्मका प्रवाह अखंड चलाआ रहाहै. इस धर्ममें आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादि माना गया है. और आत्माको कर्मसे छुडाकर मोक्षमें पहुंचानेके उपायभी बतलाये गये हैं, उनमें मुख्य प्राणिमात्रपर दया रखकर अन्य जीवके प्राणके अपने जीवके प्राण समान समझकर उसकी रक्षा करनेका फरमान है, इसहीसे अंतरात्माकी निर्मलता प्रगट होती है और छाया समान जो पौद्गलिक सुख मिथ्या सुख है उसकी तरफ स्वमेव अरुचि पैदा होजातीहै. जिसतरह सोनेको रेतसे अलहदा करनेके वासते उसको अग्नीके तापके संतापमें डालना पडता है परन्तु इस कष्टको एकवार सहन करनेपर फिर सोना अपनी अस्ली स्वच्छ हालतको प्राप्त होजाता है इसही तरहपर यह आत्मा कि जो सुवर्णके समान अनादि कालसे कर्मों के साथ सम्बन्ध रखती हुई मलिन होरहीहै उसको अपनी अस्ली हालतपर लानेका यह ही उपाय है कि इसको खानके निकले हुवे सुवर्णवत् तपें जपके तापके संताममें डालकर निर्मल किया जावे. इस संतापको सहन करनेसे आत्मा काँसे भिन्न होकर स्वच्छ सुवर्णके मुवाफिक अपने असली स्वरूपको प्राप्त होताहै. इस आत्माके शुद्ध करनेवाले तापके दो बराबरके दरजे हैं:-१ ज्ञान, २ क्रिया. इन दोनों के मिलापसे वह गर्मागरम महान भट्टी तय्यार होती है कि जिनके तापमें कर्मवत् इन्धन जलकर खाक होजाता है और स्वच्छ आत्मा प्रगट होजाती है. यद्यपि ज्ञान और क्रियाका जोडा रखागया है तोभी प्रथम स्थान ज्ञानको दिया गया है और सम्पूर्ण ज्ञान की जिसको केवल ज्ञान कहते हैं उसके प्राप्त होनेसेही जीवात्माकी मोक्ष होती है इस ज्ञानके पांच भेद है. महात्मा समय सुन्दरजीनें कहाहैः "पंचमी तप तुमे करोरे प्राणी, जेम पामो निर्मल ज्ञान रे॥ पहेली ज्ञान ने पाछे क्रिया, नहीं कोइ ज्ञान समान रे ॥ पंचमी० ॥ १ ॥ . नंदी सूत्र मां ज्ञान वखाएयु,.....
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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