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________________ “ परम गुरु जैन कहो क्यो होते. रेल्ड. स्वाद्वाद पूरण जो जाने नय गर्भित जसु बाचा गुण पर्याय द्रव्य जो बुजे, सोही जैन है सांचो ॥ परमः ॥ पर परिणति अपनी कर मानें क्रिया गर्भे गहलो उनको जैन कहो क्यों कही ये सो मूरखमें पहीलो || परम | " [भ 'अशा कीई जाती है कि आप इस शिक्षाको याद रख कर इस वर्तवको एक दम अपनी समाज में से दूर कर 'देवंगे— २ मरणे पीछे नुकता की जीमण वार .. वैष्णव धर्मशास्त्र में स्वकर्म को प्रधान समझ कर अपने पुत्र की क्रियाको मरे हुवे पिता की कुगती से सुगती करने वाली मानी गई है. इस समय इस धर्म पक्ष के भले बुरे मतलब की तरफ तवजद्द करने की जरूरत नहीं है परन्तु यह बात मानने योग्य है कि वैष्णवों में अगर यह रिवाज प्रचलित है तो उन के धर्म शास्त्र की आज्ञा के सुवाफिक है. जैन धर्ममें स्वकर्म को प्रधान मान कर अपनी करणी ही मुख्य रखी गई है और जाते जी जो प्राणी सुकृत्य कर लेता है वह उसका आग्रामी कालमें सद्दाई होता है, जब के यह हालत है तो फिर अपने कुटुम्बी के मरने के पीछे उस का नुकता करके अपने अशुभ कर्म क्यों बांधे जावें ? अज्ञान दशा के कारण अथवा अन्य कारण से यह प्रवृती पडभी गई तो अब इसकी कोई आवश्यक्ता नजर नहीं आती हैं. घरमें मीत होवे और पडोंसी यों के जीमने की खुशी होय कहो कैंसा अनुचिताचरण है? में आशा करता हूं कि इस बुरे, जैनधर्म की आज्ञाके खिलाफ रिवाज को आप साहब अवश्य बंद करेंगे. 1. 5 मोत- होनेपर रोने कूटने का रिवाज . - जीवात्मा अनादि कालसे इस संसार में भ्रमण करताहुवा अनेक वार अनेक योनीमें सम्बन्ध करताहुवा माता, पिता, बहीन, भाई वगरहकी पदवीको प्राप्त हुवा है और जहां संयोग है वहीं वियोग अवश्य है इसलिये वियोगकी हालत में मिध्याख और मोहनीके उदयसे इतना रोया है कि अगर अबतकके रोनेके आंसूको इकठा किया जाये तो इतनी प्रबल नदीं बहै कि शायद उसके सामने गंगा सिन्धु नदियांभी लज्जा पार्श्वे. ग्रह असार संसार एकसराय है जिसमें कई मुसाफर कई जग बसेरा लेतेहैं और कम ज्यादा स्थिती रखकर फिर अपना अपना रस्ता पकड़ते है. इसी तरहपूर जीवात्मा अपने २ कम प्रेरे हुवे आकर सम्बन्ध करते हैं और सम्बन्ध टूटनेसे फिर अपनी अवनी गती अंगीकार करके दूसरी जगह सम्बन्ध करते हैं - यह बात जुरूर है कि सम्बन्ध होतेस प्रीति
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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