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________________ १५४ जैन को ि उनकी जो मती होगी ज्ञानी महाराज जाने ! या आप साहब इसका क्याल करसकते हैं. इसलिये अपनी आत्माका कल्याण होने और धर्मादिका पैसा व्यर्थ में जावें अपना सबका फर्ज है कि धर्मादाशलाताको बहुत सही और साफ रखें उसको छपाकर प्रगट करें और अपनी मिलकियत न समझकर जो जैमी उसको देखना चाहे उसको फोरन दिखलाया जावे... जैन डाइरेक्टरी जैन डाइरेक्टरी का तयार करना बहुतही जरूरी है कि जिससे अपने समाज की स्थिती का पूरा खयाल हो जावे ताके उसको उन्नत्ति और तरक्कीकी सूरत विचारी जावे. और इस जैन sistक्टरी का काम जबही ठीक पार पड सकता है कि जब महासभा के ठहराव के मुवाफिक प्रान्तिक सभामें इस कामको हाथ में लेकर अपने २ प्रान्त को डाइरेक्टरी तय्यार करे और प्रान्तिक सभा " मारफत इस का तय्यार होनाभी आसान है क्यों कि उस प्रान्तमें जितने गांव हैं उन गांवों की अल्हदा २ डाइरेक्टरी तय्यार होकर एक प्रान्तिक डाइरेक्टरी तय्यार होसकती है और प्रान्तिक डाइरेक्टरीयों से कुल समाज की एक डाइरेक्टरी होसकती है. जैनीयों के आपस के तकरार का पंचायति फैसला सज्जनो ! आप सब साहबों को आजकल के न्याय की पद्धती अच्छी तरह से मालुम है कि जिसमें दाखिल होने से वे शुमार खर्च लगता है और कई घरों के ताले लग जाते है. और जैसे गंज्या आदमी अपने माथे की खाज कुचरते हुवे खून निकलआने परभी उस माथे को दूणा खजाता हैं इसी तरह पर मुकदमे वाले को एक कोर्ट से फतह न मिलने से अपना जेवर मालमता बेचकर दूसरे कोर्ट में चडाई करना पडता और वहां से तीसरे और चोथे में. कोर्ट के खर्च के सिवाय अपने आजकल के वकीलों, बारिष्टरों का खर्च बे शुमार बढ़ गया है और इस की तसदीक अपने इस मंडल में आये हुवे बहुधा अहमदावाद निवासी जैन वकील करंगे. अगरचे में इस विषयकी सूचना देकर अपने भाईबंद वकीलो की आमदनी और धन में कमी करने की सूचना देरहा हूँ परन्तु आप साहब इस विषय में जो इन सज्जनुं सेही राय लेवंगे तो यह लोग आपको खरी सल्लाह देवंमे कि कोर्ट में चढकर न्यायको प्राप्त होना बहुत महंगा पडता है और इस तरहकी लडाई अपने धर्मशास्त्रोंके फरमानको भी विरुद्ध है क्योंकि हमको अपनी आत्माको स्वच्छ करनेकी नियत से किसीके साथ रागद्वेष नहीं रखना चाहिये किन्तु समान दृष्टीसे वर्तना चाहिये ते फिर कोर्ट में चढकर दुतरफा नुकसान पहुंचानेपर क्यों व्यर्थ कमर बांधि जावे. दुनियादारीके सम्बन्धमें आपसमें तकरारका होना नामुमकिन नही है परंतु इसका समाधान कोर्टमें न कराते हुवे अपनी समाजकै आगेवानोंको पञ्च मुकरर करके उनसे उस तकरारका समाधान कराया जावे तो अपनी समाज की तरकी और बहबूदी हो सकती है. आशा कीई जाती हैं कि आप इस बात पर पूरा ध्यान देकर इस पर विचार करंगे. शत्रुंजय महातीर्थ. यद्यपि शत्रुंजय महातीर्थ इस प्रांतके अन्दर नही है तो भी इस महातीर्थ सम्बन्धि चर्चा सभामें चला कर किसी पुरता विचार पर आना बहुतही जुरूरी है क्योंकि आज कल कोई दिन खाली इस
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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