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________________ १९०५] पेयापुर कोन्फरन्स. इन सुभटोंकी जैसे अगर आप सब साहब मानके छाजे चढकर एक दूसरेसे लडोगे या अपनेसे ज्यादा श्रेष्ठ और बुद्धिवानका आदर न करके अपनी बुद्धिका अभीमान करोगे तो आप सब साहबोंका इस कदर श्रम उठाना फोकट जावेगा. हम लोगोंको हमारे कोनफरन्सकी तरक्कीके वास्ते कि जिसके साथ हमारी सामाजिक और धार्मिक उन्नत्ति लगीहुई है उस भोले जीवके मुवाफिक बरताव करना चाहिये कि जिसकी कथा इस तरह पर है:-एक भोले जीवकी स्त्री हमेशा कथा सुनने जाया करतीथीं और वापस आकर अपने पतिसे कहा करतीथी कि कथामें अमृत बरसता है. एक दिन उस भोले प्राणीके मनमें अमत पान करनेकी इच्छा हुइ तो अपनी स्त्रीके साथ कथामें गया. परमाद बस होनेसे नींद आगई, आंख मिचगई, मूंह खुलगया इतनेहीमें एक श्वानने मोका पाकर उसके खुले हुवे मुंहमें पेशाब करदिया कि जिसका स्वाद खराब लगा. घर आकर अपनी स्त्रीसे बोला कि मेरे मुंहमें तो अमतकी जगह कच्छ खराब स्वाद आया. स्त्री चातुरा थी जबाब दिया कि कल जुरूर अमृतका स्वाद आवेगा. अमतके लालचसे फिर दुसरे दिन वह भोला जीव कथामें गया और परमादबस हुवा. स्त्रीने मोका पाकर ही डली उसके खुले मूहमें डालदी कि जिसके स्वादसे वह भोला मनुष्य आनंदित होकर कार हमेशा जाने लगा किजिस कारणसे उसको धर्ममें रुचि होकर वह धर्मात्मा होगया-इस द्रष्टान्तसे अपने लोगोंको यह सारांश निकालना चाहिये कि जिस तरहपर बह भोला मनुष्य अपनी सी कथनपर दृढ रहकर प्रथमदिन खारा स्वाद आने परभी अमृतके लालचसे फिरभी वह कथामें न और ज्ञानका उपदेश सुनकर धर्मात्मा होगया वैसेही चाहो अपनी बुद्धि अपनी महासमाजके कामकाजमें दोडे या नहीं अथवा हम महासमाजके फायदोंसे वाकिफ हो या नहीं परन्तु हम सबको एक यह दृढ विश्रास होना चाहिये कि हमारी कोमके आगेवान, धनवान, बुद्धिवान जिस कामको तन मन धन लगाकर प्रयत्न कररहे हैं वह अवश्य श्रेष्ठ है और हमको उनके बतलाये हुवे रस्तेमें चलकर उनकी मदद पर रहना श्रेष्ठ है. जब यह दृढ विश्वास हरेक जैनीके दिलमें पैदा हो जावेगा मसला संगीन पाया डाला जावेगा और जिस कामको करना विचारेंगे करसकेंगे क्यों कि एक तण किसी कामके करनेको अशक्तहै परन्तु जब कई तृण मिले जाते हैं और एक डोरीके साथ बन्ध जाते हैं तो हर जगह सफाइ करदेतेहें. अपनेभी सम्पकी डोरीके अन्दर बन्धनेसे अपनी समाजभी कई शशी करसकती है. एक बिन्दु पानीका पृथ्वीपर पडते ही सूकजाताहै परन्तु कई बिन्दूवोंका समह होनेसे नही बहकर जो मुकाबला करताहै उसहीको अपने प्रबाहके बेगमें तृणसमान बहा ले जाताहै. हमलोग पथक २ कुच्छनहीं करसकते जब नदी के प्रभा के मुवाफिक हम सबका सम्प होकर एक प्रवाह चलेगा. तौ आजकल जो जो शंकट दुष्ट जीवोंकी तरफसे अपने समाजपर डाले जाते हैं उन दान जी वोंका पराजय होकर तणवत वह पापी हमारे सम्पके प्रवाहमें ठोकर खाते टक्कर खाते नही हालतके साथ बहते हुवे चले जावंगे. अच्छे समझदार राजावोंका Divide and rule अर्थात हा डालकर निर्विघ्न राज्य करनेका विचार रहताहै परन्तु जिनमें तड पडजाती है उनका सत्यानाश होजाताहै. घरकी फूट घर को खाये" इस कारण चाहो किसीभी समय किसीभी खयालसे अपने अन्दर तडें पडीहो उन तडोंको अब कायम रखनेसे अपना भला और सुधारा हरगिज नहीं होसकताहै. 'उन तडोंको तोडकर एक होकर सुधारा करनेका अब समय आगया है. और यह सुधारा इसही तरहपर होसकताहै कि जो जो प्रस्ताव अपनी महासभा में हों या उनका अनुकरण करते हुवे जो जो प्रस्ताव अपनी प्रांतिक सभावों में हो उन प्रस्तावोंकी पावंदी पूरे तौरपर की जावे और यह पाबन्दि जवही होसकती है कि जब
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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