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________________ जैन कोनफरन्स हरैल्ड. [मे पुस्तक सब विस्मृत होगये थे. दुर्भिक्षके मिटने पर पाटलीपुत्र नगरमें सब साधू इकठे हुये और सम्मण कोनफरन्स करके जिस २ साधू को जो जो पाठ. कंठ रह गया था उस सबको संधान करके एकादशांग तो पूरे किये और नैपाल देशमें श्री भद्रबाहू स्वामीके पास श्री स्थूल भद्रजीने पहुंच कर दश पूर्व सूत्रार्थ से और चार पूर्व सूत्र. मात्र पढे-पीछे श्री स्कंदिलाचार्य के समय में बारा बर्षीय पुनःकाल पड़ा जिसमें क्षुधादोषसे चमत्कार दिखलाने वाले बहुत से शास्त्र नष्ट हो गये--परन्तु सुभिक्ष होनेसे मथुरा नगरीमें श्री स्कंदिलाचार्य प्रमुख श्रमण संघनें एकत्र होकर अपनी २ यादके मुवाफिक मथुरा नगरी में पुस्तक जोडे. और इसही वास्ते इसको " माथुरी बांचना" कहते हैं. और जो सूत्रार्थ श्री स्कंदिलाचार्य ने संधान करके कंठाग्र प्रदालत कीयाथा उसको श्री देवद्धिंगणि क्ष्माश्रमणजीने एक कोटी अर्थात् एक करोड पुस्तकों में आरुढ कीयाथा. और अब इसही ज्ञान का एक अंश अपनी समुदाय में फैला हुवा है. मेरे ऊपर के विवेचनसे आप साहेबोंको विदित हूवा होगा कि सम्पसे क्या फायदे होते हैं और कुसम्प से क्या क्या नुकसान पैदा होते हैं. अगर अपने महान पूर्वाचार्य अभिमान के छाजे बैठकर गच्छ, विद्या, बडे छोटेका खयाल करके आपसमें न मिलते और हरेकको याद रहे हुवे ज्ञानको एकत्र नहीं करते तो क्या जो अंश ज्ञानका इस वक्त रहगया है वह मिलसकता था ? धन्यहै उन महात्मावोंको कि जिनहोंनें परोप्कारार्थ इतना श्रम उठाकर हमारेबास्ते एक अमूल्य विरासत छोडी है. अगर आजकलके प्रचलित खलायात उन महात्मावोंके दिमागोमें भी ठसेहुवे होते तो में नहीं कह सकता कि ज्ञानके अभावमें हमारी क्या दुर्दशा होती. उनके पश्चात मुसलमानी राज्यके गडबडमें अपने पुर्खावोंको एसी समाजोंके इकट्ठे करने का मोका नहीं मिला और इसही कारणसे जो भ्रात भाव कुल हिंदुस्थानके जैनीयोंमें जो होना चाहिये वह देखनेमें नही आता और जो जो खराबीया धर्म और समाज पक्षमें देखी जाती हैं वह सब इसहीका नतीजा है. परन्तु अब अंग्रेजी राज्यमे हमलोगोंको फिर वह मोका मिला है कि हम अपने बुजुर्गुके रस्तेमें चलकर महासभा करके अपने जात और धर्मकी उन्नत्ति करें.. इस जगह यह प्रश्न होसकता है कि सम्प सम्प. पुकारनेसै सम्प कैसे हो? वह रस्ता कोनसा है कि जिसमें चलनेसे सम्पदेवीकी सहायता मिले ? इस प्रश्नका उत्तर तो आसान है परन्तु उस उत्तरके मुवाफिक आचरण करना आप सब साहबोंके हाथमें है. हमारी समाजमें वृद्ध, युवा और बालक, धनाढ्य और गरीब, विद्यावान और भोले, बुद्धिवान और कम फहम, आजबान और साधरण स्थितीके भाइ मोजूद हैं. इन सबकी रहनुमाइके वास्ते दो दिलचस्प दृष्टांत देने की आवश्यक्ता समझकर अवलतो आपका ध्यान उन ५०० सुभटोंकी तरफ खेंचना चाहताहूं कि जो नोकरीकी तलाशमें निकलकर एक राजाके पास पहुंचे. राजाने उनकी परिक्षा करनेके लिये कि इसमें आपसमें सम्प है या नहीं और इनका बरताव फौजी कायदेके मुवाफिक है या नहीं, उस सबके वास्ते एक खाट, एक विठ्ठना, एक पानीकी मटकी भेज दी और उनकी चेष्टा देखनेके वास्ते अपने नोकरोंको उनकी निगहबानीपर बैठा दिया. उक्त सुभंटोंने अपने आपको एक दूसरेसे ज्यादा अकलमंद और उंचा समझकर राजाकी भेजी हुइ वस्तुके हरेकने गृहण करनेकी अभिलाषामें आपसमें लडाइकी इसकी खबर राजाको मिलनेसे राजाने उनका अनादर करके निकाल दिया कि जिसके सबबसे उनको उनका इच्छित फल नहीं मिलसका,
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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