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________________ १९०५] पेयापुर कोन्फरन्स. इस मोके पर श्री पेथापुर निवासी जैन भाईयों की हिम्मत, बल और पराक्रम की नोंध लेते हुवे मुझे खुशी होती है कि थोडे दिनों पहिले जो स्तुतिपात्र कामे दक्षिण प्रांत की जैन समुदाय ने आमलनेर में प्रांतिक क्रोनफरन्स करके महा समा की पुष्टी के वास्ते किया है उसही का अनुकरण करते हुवे इस पेथापुर गांम की नानी जैन समुदाय में खास करके इस हालत में कि यहां पर अच्छी तालीम पाये हुवे जैनियोकी संख्या बहुत ही कम है उत्तर विभाग गुजरात प्रान्तिक कोनफरन्स इकट्टी करनेकी भारी महनत उठाकर महासभा के कामों में बडी भारी मदद दी है और अन्य शहरों व प्रातों के धनवान, बुद्धिवान, विद्वान, धर्मात्मा जैन महाशयों के वास्ते एक बेनजीर नमूना पैदा किया है कि जिस हिम्मत के लिये में अपनी तरफ से तथा आप सब साहबों की तरफसे पेथापुर के संघ को अपने खरे अन्तःकरण से धन्यबाद देता हूं. सबसे पहीले में आप का ध्यान इस तरफ खेचना उचित समजता हूं कि आप सब साहबों को महासभा तथा प्रान्तिक सभा की आवश्यक्ता पर पूरा पूरा ध्यान देकर ऐसा विचार करना चाहीये कि जिससे हमलोगों का परिश्रम उठाकर दूर दूरसे आना और हमारे स्थानिक स्वामि भाईयों का अथाग श्रम और द्रव्य व्यय सफल होवे. आपलोगों को अच्छी तरह मालुम है कि अपनी जात और अपना . धर्म इतफाक (सम्प) से कायम है और इस सम्प का महातम्य अपने देव और गुरुने भली प्रकार बतलाया है-जिस समय श्री तीर्थकर भगवान की समवसरण रचना होती है उस समय देव देवांगना, मनुष्य, स्त्रीयां, साधू, साधवियें और हर किस्म के तिर्यंच उस समव सरण में अपने २ स्थान पर बैठते हैं. इनमें कई प्राणीयों में परस्पर विरोध भी होता है-तिर्यचों में बहुत से तिर्यंच एसे होते हैं कि जिन में परस्पर से जाती द्वेष चला आता है और जो अन्य स्थल व अन्य समय में ऐक दूसरे पर हमला करके प्राणघात करने को तय्यार होते हैं परन्तु श्री बीतराग के अतिशय से उन प्राणीयों के परस्पर का विरोध शम हो जाता है और वह सब आपसमें अपनी अदावत को, तडों को, बैर भाव को छोड कर प्रीति भाव को गहण करते हैं और प्रीतिपूर्वक जिनेश्वर भगवान की बाणी को सुनते हैं. हमेशा किसी खास काम को किसी खास कायदे के मुवाफिक करते रहने से उस काम के करने की आदत पड जाती है और इस आदत के मुवाफिक तीर्थकर देवके अभावभेभी वह बिरोधी जीव परस्पर मित्राइ रखते हैं. सच्या जैनी वह ही है कि जिसका घर हर गांवमें हो. इस पर गौर करने से मालुम होसकता है कि यह बात तो सब जैनीयों के लिये नामुमकिन है कि वह अपना २ घर हर गांममें बनावें. इसका मतलब यह ही है कि जैन धर्मानुयायी को हर गांमके जैनीयों के साथ ऐसी प्रीति करना वाजिब है कि जिस गांममें वह जावे वहां उसको अपने घरका सा आराम मिले यह बात उसही वक्त हो सकती है कि जब आपस में सम्प हो. इस ही तरह पर तीर्थयात्राके निमित्त संघ के निकालने से धर्मलाभ होने के उपरांत देशदेश के जैनीयों में सम्प की वृद्धि होती है क्योंकि अवल तो उस संघमें ही कइ अन्य गांवों के मनुष्य इकट्टे होते हैं जिनमें कह दिनों तक एक साथ रहने से आपस का मेल जोल बढ़ता है और जिस २ गाममें होकर वह संघ जाताहै उस र गांमके जैन समुदाय के साथ अवश्य प्रीति बढती है. जब नंद राजाके समय में बारा वर्षका दुःकाल हुवा उस वक्त भिक्षाके न मिलनेसे एक भद्रबाहू स्वामीको बर्जके सब साधु महात्मावों के कंठाग्रसे द्वादशांग के
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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