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________________ जैन कोनफरन्स हरैल्ड. प्रियधर्म बांधवो, गुजराती डेलीगेटो, अन्य सद्गृहस्थो और सूशील बहेनो! श्रीजिनेश्वर देवकी इस समयपर मांगलिक स्तुति करते हुवे आज मुझे अत्यंत हर्ष उत्पन्न होता है कि में मेरे प्यारे गुजराती भाईयोंकी इस प्रान्तिक समाजमें उपस्थित होकर कृतार्थ हुवा. और जो २ शुभ कर्तव्य आप महाशय यहांपर पधारकर करनेकेलिये कटिबद्ध हुवे हैं उनकी कार्यवाहीमें में शामिल होसका. मुझे इसही प्रकारकी खुशी आमलनेर दक्षण प्रांतकी समाजमें शामिल होनेसे उत्पन्न होती परन्तु कई कारणों से वहां न जासका और इस जगहभीमें अपनी हाजरी दैवयोगसेही समझता हूं. और इसही लिये मुझे और भी ज्यादा खुश होनेका मोका मिलाहै, और आप साहबोंने कृपा करके इस प्रांतिक कोनफरन्सके प्रमुखके पदकी महान् इजत जो मुझे बक्षी है उससे मुझे इतना ज्यादा आल्हाद हुवा है कि उसको शब्द द्वारा प्रकट करने और आप साहबोंका उपकार माननेने में असमर्थ हूं. राजपुताना, पंजाब, गुजरात, काठीयावाडमें कइबार जगह २ सभा करके मेंनें आप साहबोंकी सेवा करके अपनी जात और धर्मोन्नत्तिके वास्ते भाषण दिये हैं और आप साहबोंकी सम्मत्तिसे श्रीफलोद्धीतीर्थ क्षेत्रपर अपनी महान सभाका पाया डाला है और फिर इस महासभाके जलसोंमें वक्तातरीके आपकी सेवा बजाइ है और आप साहबोंने विश्वास करके चारों जनरल सैक्रेटरीयोंकी पंकतिमें रखकर कोनफरन्सके एक खास रेजोल्यूशन द्वारा आपने हमको आपकी सेवा करनेका मान दिया है परन्तु इस प्रसंगपर जो बेहद इजत और आबरू आप साहबोंने मुझे बक्षी है उसका आपको अधिक धन्यवाद देते हुवे इस बातको प्रगट करना में मुनासिब और जुरूरी समझता हूं कि में अपने आपको इस कदर इजत और मानके लायक नहीं समझता हूं. बहतर होता कि इस प्रान्तिक कोनफरन्सके प्रमुखके जिमेदार पदके लिये आप साहब इस ही प्रांतके किसी विद्वान, बुद्विवान, धर्मवान, आगेवान, लायक सद्गृहस्थको पसंद करते; क्योंकि यद्यपी यह प्रान्तिक सभा अपने कुल जैन समुदायकी एक बडी शाख है और इसका काम काज उसही महासभाके अनुकूल और उसको पुष्टी देनेवाला होगा तोभी इस सभामें उत्तर भाग गुजरात प्रान्तकी खुसुसियत लगी हुई है, कि जिसकी कार्यवाही उमदा तौरसे गुजरातके सद्गृहस्थ सेही होना संभव था परन्तु इजत पर इजत बक्षना पसंद करके आप साहबोंने उमंग और उत्साहपूर्वक जो इस सभाका प्रमुखका पद मुझे दिया है कि जिन श्रीसंघकी दीहुई आबरूको में अपने दुनियाकी कुल इजत व आबरूसे कइ दरजे अधिक समझता हूं-उसके लिये में श्रीसंघको अपने अन्तःकरणसे कोटीशः धन्य बाद देता हूं; और परमात्मा देवसे प्रार्थना करता हूं कि आपने जो विश्वास मेरे अंदर कीया है उसही मुवाफिक मेरे अन्दर भी वह शक्ती दैवयोगसे पैदाहो कि जिससे में आपकी सहायताके साथ इस सभाके शुभकार्यको इच्छित कामयाबीके साथ पार उतारूं.. में फिर एक बार इस बातको प्रगट करनेके लिये इजाजत लेताहूं कि इस वक्त मेरे रुखसत लेकर यहां आनेमें कइ मुशकिलात दर पेश आई हैं परन्तु पेथापर संघके बेहद आग्रहसे और जैन समुदायकी जहांतक मुमकिन हो सेवा बजानेकी नियतसे में वगैर किसी तरहकी तय्यारी और सोच बिचारके आपके रोबरू हाजर हुवा हूं और यह प्रार्थना करनाभी मुनासिब समझता हूं कि आपके स्थानिक रीतीरिवाजसे में सम्पूर्ण तोरसे वाकिफकार नहीं हूं इसलिये अपनी इस शुभ प्रांतिक सभाके कामकाजमें भेरी तरफसे नावाकफितके सबबसे जो कमी रहजावे तो आप साहब क्षमा करेंगे और इसही लिये में आशा करता हूं कि आप सब साहब एकमन, एकदिल, एकवचन होकर इस कामको खास अपना समझकर और मुझे भी खास आपका सेवक समझकर बहुत खुशीके साथ समाप्त करंगे.
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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