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________________ ૫૫ श्रीमान तीर्थंकर महावीर और घेद कामनाओंके लिए लौकिक देवोंकों मानतेथे दिये. सूची, निरुक्त, उनपर वनगये वेदोंका वैसेही लोकोत्तर सिद्धिके लिए अर्हन्कों सच्चा अर्थ बतलानेवाले अनेक ब्राह्मण ग्रंथथे. मानतेथे. वेदोंमें अर्हन् देवके संबंध मंत्रहै. उनकाभी अधिक भाग लुप्त हो गया. इस पुराणोंमेंथी उल्लेख अनेक स्थल परह. वैदिक समय थाडेसे ब्राह्मण ग्रंथ प्राप्त है. इधर स्तोत्र पाठोंमें अरिहंतोंको विष्णु के अवतार सायण महिधरादिक भाष्यकारोंने साम्प्रदामानेहैं. ऋषभ देवकी महिमा भागवत पुराण यिक मोहमें फँस कर-वेदोंके अर्थो में गडवड में वर्णन कीह. अरिष्टनेमी तीर्थंकरका वर्णन करदी. तथापि इतना हम दावेके साथ कह वेदों में है. अर्थात् महावीर के समयतक जैन सकते हैं कि-रहे सहे भागकों संहिताओंका और वैदिक भिन्नर्मि नहीं समझे जातेथे. रूपदिया जानेंपर तथा सूची निरुक्तादि बन परंतु उपासना भेद मात्र था. जानेसे अवशेष भाग जो था वह आजतक भारतीय धर्मकी जबसे भारतमें तीन कायम रह गया यह अवश्य सौभाग्यकी बात शाखाएँ हुई तभीसे परस्पर फूट फैलने लगी. हुई-अवशेष भागमेंभी बहुत कुछ मिल क्षणिक सिद्धांति, नित्यसिद्धांति और नि- सकता है. विज्ञानात्मक दृष्टिसे आजभी त्यानित्य सिद्धांति. यह तीन भेद सूक्ष्म रूपसे वेदोंका अर्थ किया जाय तो कुछ बुरा पड़े और बढते यहां तक बढे कि-एक दुसरे नहीं है. इस लिए वेद आजभी उपादेय है. कों बुरा बतलानाही अच्छा समझा जाने लगा. अनेक बातें आजभी उनमें मिल आती है. ___ वेदोंके संबंधर्म हम इतनी बात जोरके किन्तु बौद्धोके समय क्षणिक बादका जोर साथ कह सकते हैं कि-जिस अवस्थामें वेद रहा उस समयमें गुप्तरूपसे वेदानुयायियोंमें होने चाहिये वेसी अवस्था वेदोंकी नहीं रही. वाममार्गकी प्रबलता होने लगी. मांस मऋषभदेव और भरतके समयमें वेद पूर्णाग- 'दिरा सेवन करना मामूली बात हो गई. रूपमें थे. उस समय जैन धर्मानुयायी वर्ग नरमेधतक होने लगा. "न मांसभक्षणे संसारकी व्यवस्थाके लिए वेद पढतेथे. उसके दोषो, न मद्ये न च मैथुने " वैदिक कहने पश्चात् वेदिक ऋषियोंके कुछ २ मंत्र कंठस्थ लगे. प्रकृति उपासकोंमें शाक्त कहलानेवाले रहे परंतु उन विज्ञानात्मक वेदोंकास होने वाममार्गी जगदंबाके नाम पर बलीदान लगा. लाखो मंत्र नष्ट हो गये ऐसी दुर्दशा करने लगे. उनका अनुकरण अच्छे २ वैदिक होते देख अवशेष भागकों बादरायण व्यास विद्वान्भी करने लगे और कहने लग गये किके चार शिष्योंने चार संहितोंका रूप देकर “यागिया हिंसा हिंसा न भवति" इस प्रकार संग्रह करदिया. निगह पेल अंगीरा और घोर हिंसा होने लगी ऐसी दशामें कुशल जैमिनी इन चारोंने संग्रहकर ऋक, यजु, जैनाचार्योंने अहिंसक दशाम रहकर जितना साम और अथर्व ऐसे चार नाम वेदोंके रख कुछ हो सका उतना अहिंसामय संसारको
SR No.536285
Book TitleJain Yug 1982
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1982
Total Pages82
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size7 MB
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