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________________ गो शा ल क के शब्दों में महा वीर-स्तुति श्री अगरचंद नाहटा भारतीय महापुरुषों में भगवान महावीर का एक महान साधक के रूप में विशिष्ट स्थान हैं। वैसे तो जैनधर्म की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। पर वर्तमान में जो भी जैन तत्त्वज्ञान और आचार संबन्धी विवरण मिलता है, वह भगवान महावीर की ही देन है। यद्यपि सिद्ध कोटी के प्राप्त पुरुषों के विचारों में समानता होने के नाते सभी तीर्थकरों का उपदेश एक समान ही माना जाता है, क्योंकि सभी का लक्ष और गंतव्य स्थान निर्वाण एक ही है। फिर भी अपने अपने समय की आवश्यकता और स्थिति के अनुकूल ही उपदेश होता है। मूल सिद्धान्त चाहे एक ही हों पर उनका निरूपण अलग अलग व्यक्तियों द्वारा होने पर भाषा, शैली, किसी वचन की मुख्यता व गौणता का अन्तर रहेगा ही। भगवान महावीर के पूर्ववर्ती भगवान पार्श्वनाथ के आचारादि में जो अंतर था वह हमें केशी-गौतम संवाद द्वारा विदित होता है। दोनों तीर्थंकरों के साधुओं का जब एकीकरण हुआ तो अवश्य ही आचारों में कुछ परिवर्तन या लेनदेन हुई होगी। जिन-कल्प और स्थविर-कल्प से ही आगे चलकर दिगम्बर और श्वेताम्बर-दो सम्प्रदाय हो गए। __भगवान महावीर के समय में उन्हीं के दो शिष्यों ने उन्हीं के सामने अपने को सर्वज्ञ या केवली घोषित किया और अपना मत अलग चलाया। उनमें पहला था गोशालक । जो भगवान महावीर की छद्मस्थ अवस्था याने साधनाकाल के समय शिष्य बना था। नियतिवाद को लेकर उसने अपना मत चलाया, जो आजीवक सम्प्रदायक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सम्राट अशोक और उसके कई शताब्दियों बाद तक भी इस सम्प्रदाय का प्रभाव रहा, जिसका प्रमाण हम प्राप्त प्राचीन अभिलेखों मे पाते हैं । भगवती सूत्र में गोशालक के भगवान महावीर के शिष्य होने और फिर अपने को सर्वज्ञ घोषित वादविवाद करने के लिए अपने तथा मृत्यु एवं भवान्तर तक का उल्लेख मिलता है। भगवान महावीर का एक प्रधान श्रावक सद्दालपुत्त पहले गोशालक का अनुयायी था फिर भगवान महावीर का उपदेश सुनकर उनका अनुयायी हो गया। गोशालक को जब उसके इस धर्म परिवर्तन की सूचना मिली तो वह पोलासपूर में सद्दालपुत्त के पास आया और जब उसने गोशालक का पूर्ववत् आदर नहीं किया, तो उसने सद्दालपुत्त को अपने अनुकूल बनाने के लिए भगवान पहावीर के गुणों की प्रशंसा उसके सामने ही की। चाहे उसने वह प्रशंसा सच्चे हृदय से नहीं की हो; पर भनवान महावीर के गुणों की बहुत ही यथार्थ स्तुति उसके कथन में पाई जाती है। सबसे पहले गोशालक ने सद्दालपुत्त के सामने भगवान महावीर का प्रसंग इस प्रकार छेड़ा हे देवानुप्रिय! महाब्राह्मण यहाँ आये थे ? सद्दालपुत्त-महाव्राह्मण कौन ? गो०-श्रमण भगवान महावीर। स०--भगवान महावीर महाब्राह्मण कैसे ? श्रमण भगवान को किस कारण महाब्राह्मण कहते हो ? ___ गो०-भगवान महावीर ज्ञान दर्शन के धारक हैं, जगत्पूजित हैं और सच्चे कर्मयोगी हैं। इसलिये वे 'महाब्राह्मण' हैं। क्या महागोप यहाँ आये हैं ? स०--महागोप कौन ? गो०-श्रमण भगवान महावीर । स०-देवानुप्रिय! भगवान महावीर को महागोप कैसे कहते हो? गो०--इस संसार रूपी घोर अटवी में भटकते, टकराते और नष्ट होते संसारी प्राणियों का धर्मदण्ड से गोपन करते हैं और मोक्ष रूप बाड़े में सकुशल पहुँचाते हैं, इसी कारण भगवान महावीर महागोप हैं । क्या महाधर्मकथी यहां आये थे ? स०-महाधर्मकथी कौन ? गो०-श्रमण भगवान महावीर । स०-देवानुप्रिय ! भगवान महावीर को महाधर्मकथी किस कारण कहते हो ?
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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