SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आबू के परमार घारावर्षदेव का एक शिलालेख श्री अचलमल मोदी श्चित है अथवा बारा विकास भारतीय दर्शन में वृक्ष को अति पवित्र माना गया है। महात्मा बुद्ध 'को बोधिसत्त्व' वृक्ष के तले ही प्राप्त हुआ था। जैन तीर्थंकरों के दीक्षामहोत्सव वृक्ष के नीचे ही होते थे। हिंदुओं में भी देवी देवताओंका वास मानकर उनकी खूब पूजा की जाती है। पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि की भांति वृक्ष भी विश्व के लिये परमावयश्क है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि भी नहिं कि हम उनका उपयोग स्वेच्छापूर्वक व निर्दयता से करें। जैसी हमारी आत्मा है वैसी ही वनस्पतियों की भी हैं यदि एसा समझकर ही हम किसी कार्य को सम्पन्न करें तब ही हमारा विकास संभव है-हमारी सफलता निश्चित है अथवा वह विनाश होगा। वनस्पति ही हमारे लिये कल्पवृक्ष या कामधेनु है यदि उनके साथ न्याय बरता जाय-हम उनका आदर करें। क्षोभ है कि द्वितीय महायुद्ध में हमारी वन सम्पदा बुरी तरह नष्ट हो गई। राज्य ने धन बटोरने के हेतु कोयला बनाने और इंधन निर्यात के ठेके दे दिये और फल यह हुआ कि सूखे वृक्षों के साथ निर्दोष नीले वनोंका भी सफाया हो गया। इंघन, घास और वर्षा का वर्तमान अभाव इसीका परिणाम है । वनस्पति के अभाव में उजाड़ हो रहा है-हमारे सूखे नजर आते हैं। पर्वतों की वह मनोरमा छटा अब सहज दृष्टिगोचर नहीं है। ___ भारतीय अर्बुदाचल पर्वत को एक पवित्र तीर्थ मानते हैं। इसके प्रांगणमें अनेक पवित्र स्थल और देवालय है। प्रतिवर्ष लाखों यात्री अनेक दर्शनार्थ आते हैं। मंत्री विमलशाह और वस्तुपाल तेजपाल ने करोडो रुपये की लागत से भव्य जिनालय बना इस संसार का एक आकर्षक स्थान बना दिया, जो विश्व के हर भाग के पर्यटनों का आकर्षक केन्द्र बना हुआ है। परंतु, किसी समय हरे भरे और रमणीय लगने वाले अर्बुदाचल की सुन्दरता और आकर्षक छटा शनैः शनैः लोप हो रही है। राजाओं के समय में पवित्र स्थलों के प्रांगण से वृक्षों का काटन का सख्त मनाई थी। राजा लोग अमारी उद्घोषणा कर अन्य जीवों की भांति वृक्षों को भी अभयदान देते थे। अर्बुदाचल के वशिष्टाश्रम की वाड़ी के वृक्षों को अभयदान देने का प्रमाण आज भी एक शिलालेख दे रहा है। यह लेख आबू के राजा परमार धारावर्ष देव का है जो अंतिम हिंदु सम्राट पृथ्वीराज के समकालीन थे। वे बड़े धीर, वीर, दानी और प्रतापी थे। आबू पर मंदाकिनी पर स्थित इनकी मूर्ति और तीन भैंसे आज भी उनके शौर्य और पराक्रम की पुष्टि कर रहे हैं। कहा जाता है कि वे एक बाण में तीन भैंसों को वेद्य सकते थे। वे उक्त लेख में आदेश देते हैं कि फिलिणी ग्राम में वशिष्टाश्रम की वाडी के वृक्षो को कोई न डसे-एसा करनेवाला दंडनीय और गधे का पुत्र होगा। यह शिलालेख ३४९" का है। शिला के मस्तक पर तीन वलयाकारमें गुभज का आकार है और लेख के नीचे गर्दन की आकृति है। यह लेख आबूरोड मंडार जाने वाली सड़क पर आबूरोड़ से छः मील पश्चिम की और मधुआजी के बाहार लगा हुआ है। फिरलिणी ग्राम का आज पता नहि है लेकिन आबू के शिलालेखों में इसका वर्णन मिलता है। इससे पता चलता है कि १३वीं शताब्दीमें यह ग्राम विद्यमान था। लेख देवनागिरी लिपी में उस समय की प्रचलित भाषा में इस प्रकार है। अ॥ संवत १२४५ भाद्रपद शुदि १ बुध ।। अध्येह चंद्रा (२) वत्यां माडलिक सुर शंभुः धराव देवर्षाः निभयह (३) त्यअक्षराणि लिखापयाति यथा श्री वसिष्टाश्रमें फलि (४) णिग्रामें मठे भयाको पितद्वय पुत्रों भवति तेन श्री वशि (५) श्रम फिलिणी ग्राम वाटिकाया वसति खुमानराया (६) चंपका, फणसा, चाराकर, सुग, फडु नाग अशोका बकुल (७) नारंगी धांधल प्रिय शतपत्रिका प्रभूति वृक्षाणां वीजाव (८) निक्लष्ट गंडकानि वृक्षाणां जातुवृधिशु प्रति वर्ष वावापा (९) नियानिर्धीया सिंचाई डशन कुर्वति तदा भद्वा (१०) पुत्राः स्वान, गर्दभ चाडलवंत गणकेः निग्रहणीयथा (११) दंडनीयत्वातस्य माता गर्दै भाड्यं द्रष्टव्यः ।
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy