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________________ सदगुणोपासना सद्गुणों के उपासक को सद्गुणों में ही तृप्ति मिलती है, इसलिये दूसरों से मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने की वह कभी इच्छा नहीं रखता। सद्गुण हमारा स्वभाव बन गया कि नहीं उसे परखने की यह महत्व पूर्ण निशानी है। अपने सद्गुणों के विषय में कुछ विशेषता प्रतीत होना और उसके द्वारा अहंकार होना, तथा इसी कारण से दूसरों को तुच्छ मानना ये सत्र क्षुद्र मनोवृत्तियां है, और कभी भी पतनका कारण बनती है। सामाजिक जीवन क्षुद्र विकारमय और स्वार्थपरायण न हो और पारमार्थिक जीवन पुरुषार्थ-हीन एवं शन-हीन न हो तो हम प्रवृत्ति और निधि दोनों में विवेक तथा पुरुषार्थयुक्त जीवन व्यतीत करने का लाभ ले सकते हैं। जीवन के किसी भी उदास ध्येय के बिना हमारा आयुष्य यूं ही बीत रहा है, यह आयन्त दुःखद है। धार्मिक जीवन का क्रमशः विकास हो इसके लिये जिन शासन में मार्गानुसारिता, व्यवहारशुद्धि, सम्यक्त्वधर्म या सत्यासत्य विवेक देशाविरति अथवा आयकधर्म और सर्वविरति किंवा साधु धर्म ये चार भूमिकायें बताई है। ये भूमिकायें उत्तरोत्तर शुद्ध है, अतः प्राकृत जीवन की अपेक्षा मार्गानुसारिता उच्च है, मार्गानुसारिता से बढकर सम्यक्त्व धर्म है, सम्यक्त्यधर्म से देशविरति उच्च कोटि की है और देशविरति से सर्वविरति अधिक उच्च है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो साधु जीवन के योग्य होने के लिये देशविरति का पूर्ण पालन आवश्यक है और देशविरति के योग्य होने के लिये न्याय से इस्पोपार्जन आदि ३५ गुणोंका पालन आवश्यक है। इस विकासक्रम को लक्ष्य में रखकर हम धार्मिक जीवनकी किस भूमिका पर खडे हैं यह परखना कठिन नहीं । भारत जैसे धर्म प्रधान देश में युद्ध के बाद जो नैतिक पतन हुआ है उसे शीघ्र सुधारने की आवश्यकता है और उसके लिये 'सर्वोदय समाज' 'व्यवहार-शुद्धिमंडळ' अथवा 'अणुव्रती संघ' जैसी जो योजनायें प्रयोग में आई है वे अपने संप के सक्ष्य में लेनेयोग्य है। श्री अमृतलाल कालीदास दोशी, बी. ए. यह देव, गुरु और धर्म के स्वरूप का चिन्तन करने लगता है। उनमें जो देन, जो गुरु और जो धर्म दोपसहित लगता है उसे स्वीकृत करता है। अपने तत्त्वशानियों के अभिप्रायानुसार 'अ' वे शुद्ध देव है 'निच मुनि' ये शुद्ध गुरु हैं, और सर्वज्ञों द्वारा समझाया तत्त्व, ये शुद्ध धर्म है। इन देव, गुरु और धर्म की अनन्य मन से उपासना करने से सम्यक्त्व में स्थिरता आती है और देशविरति अथवा आवकर्म के पालन की योग्यता प्रकट होती है। मार्ग में अनुसरण करते हुए मानव के हृदय में जब सत्यकी जिज्ञासा, सत्यका प्रेम और सत्य का आग्रह प्रकट होता है तब उसको सम्यक्त्व की स्पर्शना होती है और ૨૯ देशविरति धर्म में गृहस्थ को आदर्श नागरिक बनाने की योजना निहित है वह सब विशालरूप से प्रकाश में लानें की आवश्यकता है तथा उसके प्रचार के लिये उचित परिश्रम करने की जरूरत है। खेत अच्छी तरह से जोता गया हो तो उसमें बोये हुए बीज भली प्रकार से उगते हैं वैसे ही गृहस्थ जीवन उत्तम प्रकार का हो तो उन्ही में से होनेवाले साधु भी उत्तम कोटि के हों यह अनुभवसिद्ध है । सर्वविरति धर्म एक प्रकार की उत्कृष्ट योगसाधना है जिसका आश्रय लेकर असंख्य अनंत आत्माओ मुक्ति प्राप्त करने का अपना ध्येय सिद्ध किया है। वैभव और विलास के इस युग में ऐसी उत्कृष्ट योगसाधना की स्वीकृति कोई सी खेल नहीं, अतः जिन आत्माओने इस योगसाधना को स्वीकार किया है, उन्हें मैं विनय, भक्ति और बहुमानपूर्वक बन्दना करता हूँ। योगसाधकों का यह वर्ग यदि सविशेष उन्नति प्राप्त करे तो प्रभु श्रीमहावीर के शासन का समग्र विश्व में उद्योत फैले जिसे देखने के लिये लाखो आत्माएं, तरस रही है। सर्वविरति धर्म का पालन करनेवालों का मुख्य कर्तव्य संयम, ज्ञान और धर्म - ध्यान की उपासना है, अतएव उसका अधिकाधिक समय इन तीनों तत्त्वों की साधना में ही जाना चाहिये। संयम की साधना का सादा और सीधा अर्थ यह है कि मन, वचन तथा काया पर विजय प्राप्त करना, यह ध्येय सिद्ध हो इसी हेतु संसार का त्याग होता है, महान ग्रहण किये जाते हैं और गुरुकुल्यास किया जाता है। ये बात लक्ष्य से बाहर नहीं होना चाहिये । (प्रवचन में से )
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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