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________________ महर्षि मेतार्य श्री ऋषभदासजी वी. जैन पञ्चतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् अपनेको निर्दोष बतलाते हैं तो सुवर्णकार के सामने उस अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ कथनकी कोई किंमत नहीं हैं | निदान महर्षि मेतार्य मौन वास्तवमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, त्याग और ब्रह्मचर्य ही रह गये। इस पर सुवर्णकारको और भी क्रोध आया, ही संसारके सारे धर्मोकी नींव हैं । जैन धर्मने भी इन और उसे पक्का विश्वास हो गया कि, " इसी धूर्तकी पाँचों सिद्धांतोंको चरम सीमा तक स्वीकार किया है और कारवाई है"। निदान उस सुवर्णकारने महर्षि मेतार्यको तदनुयायी अनेक संतोंने इनका पालन करनेमें अपने पकड़ कर पृथ्वी पर पटक दिया और मजबूत रस्सीसे प्राणोंतककी परवा नहीं की है। ऐसे ही महात्मा महर्षि उनके हाथ-पैर बांध दिये। पश्चात् अपराध स्वीकार करमेतार्यका जन्म एक शूद्रकुलमें हुआ था, तथापि बाल्यकालसे नेके लिये उसी चिलचिलाती हुई धूपमें उसने एक भीगी हि संस्कारी होने के कारण घरसे विरक्त होकर वनखण्डों में ___ खाल को महर्षिके मस्तक पर कस कर बांध दिया। घोर तपश्चर्या द्वारा उन्होंने सिद्धिलाभ किया था। उनके पाठक जरा विचार करें, मध्यान्हकालकी प्रखर धूपमें आदर्श और पवित्र जीवनकी केवल एक घटना यहाँ दी महर्षि मेतार्यकी कैसी दुर्दशा हो रही थी। ज्यों ज्यों ख्याल जाती है। सूखती थी त्यों त्यों उनके मस्तककी नसें दबती जाती ग्रीष्म ऋतुका मध्याह्नकाल था। महर्षि मेतार्य एक थीं। गर्मी के मारे आँखोंसे अग्निके स्फुलिंग निकलते मास के उपवासका व्रत पूरा करके भिक्षाके लिये मगध- थे। शरीरका चमड़ा जला जा रहा था, परंतु फिर भी देशकी राजधानी राजगृहमें एक सुवर्णकार (सोनार) के उन्होंने 'उफ' तक नहीं किया और न वे अपने दृढ़ द्वार पर खड़े थे। सुवर्णकार किसी सुन्दर आभूषणको विचारसे हि विचलित हुए। उनके हृदयमें परम शांति तैयार करने के लिये सोने के छोटे-छोटे गोल-गोल दाने विराज रही थी। महिनेभर के उपवाससे जीर्ण-शीर्ण हुए बनानेमें तन्मय हो रहा था। इतनेमें उसने अतिथिको उनके शरीरमें किसी प्रकारके कष्टकी अनुभूति नहीं होती द्वारपर खड़ा देखा । देखते ही वह सब कुछ वहीं छोड़- थी, बल्कि उलटे उन्होंने उस सुवर्णकारको अपने उस छाड़कर अतिथिकी सेवाके लिये शुद्ध भिक्षाकी सामग्री लाने अहिंसाव्रत के पालनमें सहायक समझा और भीतर ही अपने भोजनगृहमें चला गया। किन्तु जब वह घरसे बाहर उसका आभार मानने लगे। थोड़ी देर बाद महर्षि मेतार्य निकला तब उसके बेशकीमती सोनेके सभी दाने गायब हो अपने मनो-मंदिरमें ब्रह्मका ध्यान करते हुए तल्लीन हो गये थे । बात यह हुई थी कि सामनेकी एक दिवाल पर गये। उन्हें किसी प्रकारका बाह्य ज्ञान न रहा। इतने में बैठे हुए पक्षीने सुवर्णकी गोलियोंको अन्नकण समझा सुवर्णकारने देखा कि उसके सामनेकी दिवाल पर जो और सुवर्णकारके हटते ही उड़ कर उन्हें उदरस्थ कर पक्षी बैठा था वह विष्टाके द्वारा इन सुवर्ण-गोलियों को गया । किन्तु सुवर्णकार इस बात को कैसे समजे ? उसके नीचे गिरा रहा है। यह देख कर उसके आश्चर्यका ठिकाना मनमें साधु पर ही संदेह हुआ। उसने सोचा कि अभी न रहा । अब उसकी आंखें खुली। उसने दौडकर महर्षि अभी मैं भीतर गया हू इतने में ही कौन आ गया? हो भेतार्यको बंधनमुक्त किया और उनके चरणोमें गिरकर न हो उसी ढोगी साधुवेशाधरीकी यह करतूत है। इसे अपने सारे अक्षम्य अपराधोंकी क्षमा माँगी । क्षमासिंधु अवश्य हि अपराधका दंड देना चाहिये। उसने डाँट कर महर्षि मेतार्यके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं थी, कहा, 'अरे चोर, तूने मेरी जिन सुवर्णगोलियोंको चुगया है। उन्होने प्रसन्नतापूर्वक उस सुवर्णकारको क्षमा कर दिया। उन्हें वापस कर दे, वरना अभी मैं तुझको इसका दंड किन्तु उसके थोड़ी ही देर बाद महर्षि मेतार्य उस भौतिक दूंगा, मुनि धर्मसंकट में पड़ गये यदि पक्षी को अपराधी शरीरका परित्याग कर आनंद स्वरूप हो गये। धन्य है बतलाते हैं तो उसकी हत्या होती है और इससे ऐसे करुणासिंधु संत। धन्य है ऐसे अहिंसाव्रतपालक उनको अहिंसावत पर आघात पहुँचता है। यदि महात्मा।
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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