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________________ ૧૨ श्री सम्मेत शिखरजी की -- मेरी यात्रा और उस संबंधि कतिपय विचार. (लेखक: - - सुंदरलालजी जैन. ) ( गतांक से संपूर्ण . ) जैन युग. 1 है वहांसे ३ माईल पैदल का रास्ता तय करके क्षत्रियकुंड की तलैटी हैं। यहां दो मन्दिर है भगवान वीर की दीक्षा स्थान है । बडा सुरम्य स्थान है। यहां से पहाड़ की चढाई शुरू होती है । ३-४ माल पहाड तय करके उतराई में क्षत्रियकुंड का मन्दिर है यहां वीर प्रभु की जन्म भूमि कही जाती है। परंतु यहां कोई भी वस्ती का चिन्ह नहीं । यह तो केवल स्थापना तीर्थ ही नजर आते हैं। मन्दिर की व्यवस्था बिलकुल ठीक नहीं। पुजारी जो है उसे पूजा कराने का भी ज्ञान मालूम नहीं । कर्मचारी लोग करें भी क्या । लछवाड, दीक्षा स्थान के मन्दिर तथा क्षत्रिय कुंड के सब कर्मचारी एक स्वर से चिल्ला रहे थे कि साहेब साल भर से हम लोगों को पगार नहीं मिला। बोलो हम कहां से खावें । बात दर असल ठीक जिन विचारे कर्मचारीयों को साल साल भर की पगार नहीं मिली वह क्या काम करेंगे। ऐसी अंधेर दशा नहीं होनी चाहिये। साधन तो उनलोगों का पगार ही है ओर यह भी न मिले तो वह केसे पालन करे । व्यवस्थापको को विचार कर ओर दया दृष्टि कर उनलोगों को पगार दे देनी चाहिये ताकि मदि रोकी व्यवस्था ठीक हो । क्षत्रियकुंड से सेवा पूजा कर हम लोग वापिस लबाड आ गये ओर वहीं से मोटर लारी लेकर काकंदी होते हुवे जमुई स्टेशन से चढ कर गिरीडीह पहुच गये। काकंदी तीर्थ के कर्म चारी भी पगार के लिये कह रहे थे उन विचारों की पगार भी कई महीने से नहीं मिली। गिरीडीं से सीधे मोटर कर के हम बराक दर्शन करते हुये मधुवन सुबह ८-९ बजे पहुंच गये। वहां सेवा पूजा कि। प्रभु भक्ति आनंदपूर्वक की। सब स्थानों पर प्रायः नई छतगीयां वन गइ है बाकी बन रही हैं । पहाड बडा हरियाली का है। जल मन्दिर में पुजारी लोगों की व्यवस्था ठीक नहीं। सामको वापिस नीचे उतरे । कोठी की ही मोटर में वापिस गिरीडीह पहुंचे। हालांकि हमने मोटर के लिये १० १६-४-२५४० पहले मुनीम साहिब को कह दिया थी लेकिन फिर भी कोई प्रबंध नहीं। लाचारी कोठी की मोटर में गये। जिसमें हमें पैसे भी ज्यादा देने पडे । मधुवन में कई प्रकार की बातें भिन्न भिन्न व्यक्तियों से सुनने में आई | उनसबकी सुनकर मेरी तो व्यवस्थापकों से विनम्र निवेदन है कि वह धनी मानी समाज के अगुआ होते हुवे और इतने वर्षों में तीर्थराज की सेवा करते आए हैं। वह स्वयं ही तीर्थ का कल हिसाब पबलिक में पुस्तक रूप से ही प्रकट कर दें ताकि जो लोग आक्षेप करते हैं उन्हें स्वयं ही शर्तिन्दा होना पडे। जब आप के हृदय में सच्चाई है तो फिर दोष ही क्या। और तीर्थराज के कर्मचारीयों के उपर पूरी उपका रहेव अगर आप स्वयं ही रक्षक होते हुवे विचार नहीं करेंगे तो कौन करेगा। वहां के कर्मचारीओं के चारित्र के विषय में भी कुछ आक्षेप सुने जिसके लिये शायद कोइ नें भी कोई केस चल रहा है । अस्तु कहने का तात्पर्य यही है कि व्यवस्थापकों विचार करके सब त्रुटियों का ठीक कर देना चाहिये। ताकि ऐसे पवित्र स्थान पर जा कर यात्रियों को अपनी आत्मा के कल्याण का area मिल शके । गिरीडीह से सीधा कलकत्ता पहुंचे ओर बा. फुलचंद मुकीम की धर्मशाला में ठहरे । जगह के लिये बडी कठीनाइ हुई । अपनी धर्मशाला होते हुवे भी अपनों को स्थान के लिये इतना कष्ट उठाना पडे । ओर अन्यमति सब भरे हैं । व्यवस्थापकों को इसका योग्य प्रबंध करना चाहिये । कलकत्ते में ३-४ रोज उदर कर श्री मंदिरजी के दर्शन आदि कर सीधे भागलपुर होकर चंपापुरी दर्शन करके वापिस पटना होते हुवे लाहोर पहुंच गये। यात्री बड़े आनंद से पूरे १ महीने में निर्विघ्नतया समाप्त हुई। यात्रा जानेका उद्देश केवल यही होता है कि अपनी आत्मा को ऐसे पवित्र स्थानों पर रहकर पवित्र किया जावे। इस लिये तीर्थों के व्यवस्थापकों को चाहिये किसभी तीर्थों के वातावर्ण को शुद्ध बनायें तभी यात्रा सफल हो सकती है। मेी तुच्छ बुद्धि में जब तक जैन समाज इन सब तीर्थों का प्रबंध एक सेन्ट्रल बोडो के हाथमें नहीं करेगा तबतक इतकी व्यवस्था नहीं सुधर सकती जैन समाज को तीर्थों के मामले में पंजाब के सिखांने जिस प्रकार अपने जुरदारों का मबंध किया है ठीक उसी प्रकार व्यव स्था करनी चाहिये |
SR No.536280
Book TitleJain Yug 1940
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dipchand Chokshi
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1940
Total Pages236
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size24 MB
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